सिम्बा रिव्यू: मज़ेदार 90s वाली कॉमेडी जो बचकानी नैतिक शिक्षा की क्लास में बदल गई

‘सिम्बा’ को देखकर महसूस होता है कि रोहित शेट्टी और रणवीर सिंह एक दूजे के लिए बने हैं
सिम्बा रिव्यू: मज़ेदार 90s वाली कॉमेडी जो बचकानी नैतिक शिक्षा की क्लास में बदल गई

निर्देशक: रोहित शेट्टी

अभिनय: रणवीर सिंह, सारा अली खान, अजय देवगन

फ़िल्म के पहले घंटे को देखकर लगता है कि सिम्बा उर्फ़ एसीपी संग्राम भालेराव यहाँ खुद रणवीर सिंह का किरदार निभा रहे हैं। वो अतियों से भरा, भड़कीला, उद्दाम, अभिमानी किरदार है। हास्यरस से भरपूर सिम्बा बॉलीवुड के पीछे पागल है और उसके पागलपन में हमारे सिनेमा की पैरोडी भी है और उसको ट्रिब्यूट भी। उसकी अदाएं देखनेवाले से सीधा संवाद करती हैं। ऊर्जा का विस्फ़ोट सिम्बा जब किसी दूसरे किरदार को 'उसकी असली जगह' दिखाता है तो दर्शक उसके साथ खिलखिलाते हैं। बदमाशी से भरी उसकी खांटी मुस्कान से आख़िर कोई बच भी कैसे सकता है। गोवा का मिरामार पुलिस स्टेशन पहले के जैसा ही फ़र्जी लगता है और हमारा नायक सिम्बा इस सारे फ़र्जीपने का सबसे पहुंचा हुआ उस्ताद है।

इस फ़िल्म को देखकर महसूस होता है कि रणवीर सिंह और रोहित शेट्टी एक-दूजे के लिए बने हैं। अगर ऐसा कहा जा सकता है तो रणवीर निर्देशक रोहित शेट्टी की फ़िल्मों के लिए बिल्कुल सटीक नायक है। शाहरुख खान या हृितिक रोशन जैसे अभिनेताओं से अलग, रणवीर को ऐसा अति से भरा, भड़कीला किरदार करने के लिए विशेष मेहनत नहीं करनी पड़ती। ऊर्जा का यह विस्फ़ोट उनके व्यक्तित्व से मेल खाता है। एक ही फ्रेम में उनके आसपास उड़ती कारें देखकर अजीब नहीं लगता। लगता है जैसे दोनों का याराना है। फ़िल्म तब तक बहुत मज़ेदार है, जब तक भ्रष्ट सिम्बा खुद को गंभीरता से नहीं लेता है। उसका समूचा व्यक्तित्व ही एक किस्म का तमाशा है। यहां तक कि आप धर्मा प्रोडक्शंस को उनकी पुराने हिट गानों के रीमिक्स बनाते चले जाने की आदत के लिए भी माफ़ करने को तैयार हो जाते हैं। इसी बीच एक चालाकी से भरी कास्टिंग में यहाँ आशुतोष राणा हैं। वो यहां ऐसे ईमानदार पुलिस अधिकारी की भूमिका में हैं जो सिम्बा के नीचे काम करता है और उसे इस पाप के दलदल से निकालना चाहता है। वो दिल से चाहता है कि एक दिन सिम्बा की सारी बदमाशी को एक सैलाब अपने साथ बहाकर ले जाए।

काश वो ऐसा ना चाहता। क्योंकि उसकी चाहत ये रही कि फ़िल्म अब कॉमेडी होना छोड़े और अपने पैरों पर खड़ी होकर कोई 'बड़ी बात' करे। पर ज़्यादातर हिन्दी सिनेमा के निर्देशक 'संदेश' देने के मामले में बहुत खराब हैं। क्योंकि बजाए समस्या की पहचान करने के वो समस्या का मूर्खतापूर्ण समाधान सुझाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। यह 'समाज को संदेश' देने के चक्कर में पटकथा की हत्या हो जाती है। लेकिन ऐसा होता है। पहला घंटा बीतने के बाद रणवीर सिंह जूनियर बाजीराव सिंघम की भूमिका निभाने लगता है और फ़िल्म हमसे खेलने लगती है। एक लड़की से बलात्कार होता है। फिर 5660 बार इसी शब्द को फ़िल्म में दोहराया जाता है। अचानक हमारा नायक गंभीर मुद्रा में आ जाता है। सन्नी देओल और अजय देवगन दोनों की रक्षक वाली आत्मा उसमें समा जाती है और ना जाने कहां से लड़कियाँ फ्रेम में आकर उससे पूछने लगती हैं, "अगर वो तुम्हारी बहन होती तो?" हमारा नायक सिम्बा अचानक सत्यमेव जयते वाले छाती-पीटू लिंच मॉब अवतार में आ जाता है। और इसी वजह से जब तक आप ये समीक्षा पढ़कर खत्म करेंगे, फ़िल्म ने करोड़ों रुपये कमा भी लिए होंगे।

अन्य तमाम रेप-रिवेंज मैलोड्रामा फ़िल्मों की तरह ही सिम्बा भी इस नृशंस अपराध का गलत नीयत के साथ इस्तेमाल करती है। इसमें आज हमारे देश में जो माहौल है उसकी भी भूमिका है और इस बात की भी कि हम हमारी फ़िल्मों को नैतिक शिक्षा की क्लास समझने की भूल करते रहे हैं। अब पुलिस स्टेशन में एक सीन में बलात्कारियों को पुलिस द्वारा 'नपुंसक' कहकर उकसाना और उनकी मर्दानगी को ललकारा जाना कितने स्तरों पर गलत है, क्या कहा जाए। यह फ़िल्म भौंडी और बड़बोली तो है ही, इसे तो ठीक से मालूम भी नहीं कि ये क्या बोले जा रही है। एक जगह बलात्कार की शिकार लड़की का पिता देश में लड़कियों की हालत पर दुख प्रगट कर रहा है, और फिर उसी साँस में दूसरी लड़की से अपने लिए 'अच्छी सी चाय' बनाकर लाने को कहता है। एक दूसरी जगह सिम्बा फैसला करता है कि अब उसे चीज़ें अपने हाथों में लेनी होंगी (वही हाथ जिनमें से एक पर 'पुलिस' लिखा हुआ टैटू बना है)। वो गुस्से से भरी औरतों को हथियार देता है और फिर स्टाइल के साथ बाहर निकलते हुए उनसे कहता है कि वो 'टिफ़िन के डिब्बों के साथ' उसके पीछे आएं। इन तमाम दृश्यों में छिपी विडम्बना का स्वाद उस माछेर झोल से कम नहीं, जो महिलाएं इस फ़िल्म में तमाम मर्दों के लिए बनाती रही हैं।

इन्हीं सब के बीच साढ़े तीन सीन के लिए कहीं सारा अली ख़ान हैं। अपनी तमाम अदाओं के साथ उनका काम बस ये याद दिलाना है कि हमारा सिम्बा इस तमाम चमक-दमक से वंचित भी हो सकता था, अपने भूखे पेट के साथ। सोनू सूद हैं, हमेशा की तरह परास्त किये जाने के लिए। कुछ अन्य किरदार भी हैं जिनमें ज़्यादातर पुलिसवाले, राजनेता और भाषण देती औरतें हैं। इनका कैमरे के लिए बस इतना उपयोग है कि ये सीन के इमोशन को एक चेहरा देते हैं। या फिर ये बताने आते हैं कि कैसे बलात्कारियों को 'नपुंसक बना देना चाहिए', 'ठोक देना चाहिए' या 'ज़िन्दा जला देना चाहिए'। कोर्टरूम में फ़िल्माए गए एक निहायत ही हास्यास्पद सीन में तो आप खुद वकील को अपने वाहियात संवादों पर कनखियों से हंसते देख सकते हैं। कहा जा सकता है कि मोहब्बत और 'मसाला' सिनेमा में सब कुछ जायज़ है।

मतलब की तलाश में सिम्बा ने अपना खेल खराब कर लिया है। इसे तमाशा ही रहना था, आगे बढ़कर 'मसीहा' वाली भूमिका खोजने की कोई ज़रूरत नहीं थी। रणवीर सिंह को तड़क-भड़क वाले इस अगंभीर जोकर का किरदार निभाने देते, शायद यही रोहित शेट्टी की बेसिरपैर की कहानी वाली फ़िल्मों में भरोसा पैदा करता। एक अच्छे दिल का, मस्तमौला, मनमौजी पुलिसवाला जिसे अपनी ज़्यादा परवाह नहीं यहाँ बढ़िया काम करता। मैं हमारे मुख्यधारा के फ़िल्मकारों की ये एक ही फ़िल्म में स्टोरीटेलिंग के कई जॉनर भर देने की चाहत को समझ ही नहीं पाता। मूड बदलने पर कैसा झटका लगता है, क्या उन्हें समझ नहीं आता। लेकिन ये झटका भी निर्देशक को फ़िल्म के एंड-क्रेडिट्स में अपनी अगली फ़िल्म − नाम, हीरो और रिलीज़ के साल के साथ, घोषित करने से रोक पाने में कामयाब नहीं होता। मैं परेशान हूँ कि अब कहीं मसाला बॉलीवुड के लिए #मीटू अगली नैतिक शिक्षा की क्लास ना बने, क्योंकि उससे पैदा होेनवाला पाखंड मेरी कल्पना से बाहर है।

(This review has been adapted from English by Mihir Pandya)

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