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केदारनाथ रिव्यू: प्रेम कहानी जिसमें मसाले सारे हैं, लेकिन स्वाद कुछ फ़ीका रह गया

इस प्रेम कहानी में मिठास भी है आैर आग भी, लेकिन ताज़गी की कमी है
केदारनाथ रिव्यू: प्रेम कहानी जिसमें मसाले सारे हैं, लेकिन स्वाद कुछ फ़ीका रह गया

केदारनाथ की पूरी कहानी पानी के इर्द-गिर्द घूमती है। वो पानी की आवाज़ आैर पानी का चेहरा ही है, जिसे हम फ़िल्म में सबसे पहले देखते-सुनते हैं। वो ज़िन्दगियाँ बनाता भी है आैर बिगाड़ता भी। उसमें ब्रह्मा का सर्जक रूप भी है आैर शिव का तीसरा नेत्र भी। कथा में पानी की ऐसी केन्द्रीय भूमिका हॉलीवुड फ़िल्म टाइटैनिक की याद दिलाती है, आैर यह केदारनाथ को टाइटैनिक से जोड़ने वाला अकेला संयोग नहीं है। जेम्स कैमरन के उस आख्यान की तरह ही, केदारनाथ की कहानी भी ऐतिहासिक त्रासदी के समक्ष कल्पित प्रेम कथा को पिरो देती है। यहाँ साल 2013 में आई उत्तराखंड की विनाशकाय बाढ़ आैर तबाही पृष्ठभूमि का काम करते हैं। जीवन की विपरीत दिशाअों से आकर एक लड़का आैर लड़की यहाँ मिलते हैं। निर्देशक अभिषेक कपूर उनके सामने बड़ी चुनौतियां रखते हैं। नायिका मन्दाकिनी (प्यार का नाम मुक्कू) जहाँ केदारनाथ के प्रभावशाली पंडित परिवार की बेटी है वहीं नायक मंसूर गरीब मुस्लिम पिठ्ठूवाला। उनके आगे वर्गीय असमानता की खाई है तो पीछे धार्मिक कट्टरता का कुआं। टाइटैनिक की नायिका रोज़ की तरह ही यहाँ भी मुक्कू का एक अमीरज़ादा, बद्ज़ुबान मंगेतर है, धार्मिक संकीर्णता से भरा। आैर अन्तत: इस प्रेमी जोड़े को स्वयं क़ुदरत से लोहा लेना है।

केदारनाथ इंसानी यक़ीन की भी कहानी है। यक़ीन खुदा पर, यक़ीन प्यार पर आैर यक़ीन इंसानी स्वभाव की अच्छाई पर। शुरुआत से ही मंसूर का किरदार इतना निस्वार्थ आैर दरियादिल दिखाया गया है कि खुद उसकी माँ उसे अपनी मेहनत कौड़ियों के दाम बेचते देखकर कुढ़ती रहती है। इसके साथ केदारनाथ खुद कहानी की ताक़त में विश्वास की भी गाथा है। उथल-पुथल से भरी रही फ़िल्म के निर्माण की प्रक्रिया अदालत के दरवाज़े तक जा पहुँची, लेकिन निर्देशक अभिषेक कपूर ने इस कहानी का साथ नहीं छोड़ा। उनकी मेहनत परदे पर नज़र आती है − फ़िल्म के ज़्यादातर हिस्से केदारनाथ की असल लोकेशन पर शूट किये गये हैं आैर क्लाईमैक्स में बाढ़ के कुछ बेढंगे वीएफ़एक्स को छोड़ दिया जाए तो फ़िल्म नयनाभिराम है।

फ़िल्म के दोनों मुख्य किरदार उन्हें निभाने वाले अभिनेताआें से भावनात्मक आैर शारीरिक प्रतिबद्धता की मांग करते हैं आैर सुशांत सिंह राजपूत तथा सारा अली खान दोनों इस इम्तिहान में खरे उतरे हैं। सुशांत ने भूमिका के अनुरूप लोगों को अपनी पीठ पर उठाकर खतरनाक पहाड़ी ढलानों पर चढ़ाई की है। पानी ने उछालकर उन्हें कीचड़ में पटका है। मंसूर इस प्रेम की डोर में अनुगामी है। मुक्कू चुलबुली आैर उत्श्रृंखल है, हमेशा अपने दिल की सुननेवाली। साफ़ पता चलता है कि फ़िल्म की लेखक कनिका ढिल्लों को ज़रा उग्र स्वभाव की आैर मज़बूत इरादे, सीधी पीठ वाली नायिकाएं रचना खूब आता है − भूले तो नहीं होंगे मनमर्ज़ियाँ की रूमी को? सारा भूमिका में एकदम फ़िट बैठती हैं। वो आत्मविश्वासी आैर खिली खिली हैं, लेकिन व्यर्थ की नख़रेबाज़ नहीं। उनमें कमाल की स्वाभाविकता है।

मुक्कू आैर मंसूर की प्रेम कहानी में ऐसे मौके आते हैं जहाँ उनके इस रिश्ते की मिठास आैर उसमें मौजूद आग दोनों नज़र आते हैं। एक जगह मंसूर फ़िल्म वो कौन थी का मदन मोहन द्बारा रचित क्लासिक गीत 'लग जा गले' गाकर सुनाता है। भले उसकी आवाज़ बेसुरी है, पर उसका प्यार बीते ज़माने की याद दिलाता है। जब जब फूल खिले से लेकर राजा हिन्दुस्तानी तक तमाम उन फ़िल्मों की, जिनमें एक अमीर शहज़ादी किसी गरीब, खुद्दार नौजवान के प्रेम में पड़ जाती थी। पर यह बीते ज़माने का होना केदारनाथ की तारीफ़ नहीं। फ़िल्म देखकर लगता है कि उसे दशक भर पहले रिलीज़ होना चाहिए था। मुक्कू के ज़िन्दादिल किरदार के सिवा इसमें कुछ भी नया ताज़ा नहीं।

ये फ़िल्म एक ही बार में जाने क्या-क्या हो जाना चाहती है। कहानी के एक सब-प्लॉट में मु्क्कू की बहन का अलग किस्सा चल रहा है। अभिषेक आैर कनिका ने बीच में पर्यावरण का मुद्दा भी घुसा दिया है। इससे कहानी बेमेल खिचड़ी बनकर रह गई है जिसका स्वाद फ़ीका है। फ़िल्म परदे पर छोटे कस्बे को ज़िन्दा करने की बहुत कोशिश करती है लेकिन बहुत सारी चीज़ें ऐसा होने नहीं देतीं − जैसे मुक्कू के शानदार कपड़े आैर गहने। बाहर बर्फ़ पड़ रही है आैर वो छत के नीचे सिर्फ़ डिज़ाइनर सलवार कमीज़ में घूम रही है! आैर जब वो दोस्त की शादी में मंसूर के साथ डांस फ्लोर पर कूदती है तो गरीब पिठ्ठूवाला अचानक रॉकस्टार में बदल जाता है।

दूसरे हिस्से में तो इतना कुछ ठूंसा गया है कि कुछ भी ठीक से याद नहीं रहता − फिर चाहे वो बाढ़ ही क्यों ना हो। फ़िल्म जैसे एक सीन से दूसरे सीन पर कूद रही है, जिनका आपस में संबंध ही समझ नहीं आता। एक सीन में हम चौराबाड़ी झील के निकट एक टेंट में हैं, आैर ऐसे दो किरदारों से हमारी मुलाकात होती है जिनका हमसे यह पहला परिचय है। पर वे वहाँ बस बाढ़ की विभीषिका बताने के लिए हैं। डूबती ज़िन्दगानियों के बीच में यह फ़िल्म मर्मभेदी कौतुहल पैदा करना चाहती है, लेकिन अपने निशाने तक पहुँच नहीं पाती।

फ़िल्म देखने के बाद मैं चमकता सितारा सारा के बारे में सोचती रही आैर गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य के लिखे काफ़िराना की ये प्यारी सी पंक्ति मेरे होठों पर अटक गई, "ऐसे तुम मिले हो जैसे मिल रही हो इत्र से हवा" काश! केदारनाथ के बाक़ी तमाम हिस्सों में भी ऐसा ही जादू भरा होता। मैं इस फ़िल्म को ढाई स्टार दूंगी।

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