फिल्म रिव्यू: धड़क

डायरेक्टर शशांक खेतान ने नागराज मंजुले की 2016 में रिलीज़ हुई बेहतरीन फिल्म का रीमेक बनाया है। लेकिन जिन दर्शकों ओरिजिनल फिल्म देखी है, उन्हें 'धड़क' देखकर ख़ास ख़ुशी नहीं होगी।
फिल्म रिव्यू: धड़क

मुझे लगता है धड़क को सुकून से देखने के लिए ज़रूरी है कि पहले सैराट को भूल जाया जाए। लेकिन, हममें से जिन लोगों ने भी सैराट देखी है, उनके लिए ऐसा करना नामुमकिन है। क्योंकि, नागराज मंजुले की 2016 में आई मराठी फिल्म सैराट मील का पत्थर है। सैराट मदहोशी के आलम वाली रूमानियत और जाति प्रथा पर किए गए करारे प्रहार का नायाब गठजोड़ थी। हम सब इसके मस्ती भरे बिंदास गाने झिंगाट पर खूब झूमे लेकिन थिएटर से बाहर निकले तो हमारे दिमाग में एक ऐसा डर घर कर गया जो शायद हम कभी न भूल पाएं। दो अभागे प्रेमियों की इस कहानी की तह में था धीरे धीरे सुलग रहा गुस्सा। नागराज जो खुद एक दलित हैं, ने पूरे कथानक पर ग़ज़ब की पकड़ दिखाई और इसमें न सिर्फ गहराई थी बल्कि चुंधिया देने वाली सच्चाई भी थी।

धड़क इसी अंतरंग कालजयी कथा को हिंदी सिनेमा में नई बुनावट के साथ पेश करने की कोशिश है। फिल्म का पूरा प्लॉट कुछ कुछ यूं आगे बढ़ता है जैसे किसी मिडिल क्लास ढाबे के मेन्यू की तुलना किसी फाइव स्टार होटल के रेस्तरां से चल रही हो। जिन लोगों ने फाइव स्टार रेस्तरां में खाना नहीं खाया उनको हो सकता है ये ठीक लगे। लेकिन हम लोगों में से जिन्हें भी इन चीजों का इससे भी बेहतर अनुभव है, उन्हें इसे पचाने में थोड़ी दिक्कत होगी।

शुरू से शुरू करें तो निर्देशक शशांक खेतान ने पूरी कहानी का प्रत्यारोपण कर दिया है। सैराट की कहानी महाराष्ट्र के बिटरगांव से लेकर हैदराबाद तक जाती है। धड़क आपको उदयपुर से कोलकाता लेकर जाती है। नागराज ने अपनी फिल्म के लिए दो ऐसे नए चेहरे लिए, जिनके लिए न तो ऐक्टिंग में करियर बनाना तय था और न ही उन्हें सिनेमा या फिल्ममेकिंग के बारे में पहले से कोई जानकारी थी। लेकिन शशांक दो नामचीन न्यूकमर्स जान्हवी कपूर और ईशान खट्टर को लांच कर रहे हैं। एक निचली जाति के लड़के के एक ऊंची जाति की लड़की के प्यार में पड़ने की कहानी को एक नए माहौल में रचा गया है। और, इसमें शामिल है एक यादगार क्लाइमेक्स में हैरान कर देने वाला बदलाव- मुझे अब भी समझ नहीं आ रहा कि आखिर ऐसा करने की ज़रूरत क्या थी। धर्मा प्रोडक्शन्स की परंपराओं के हिसाब से फिल्म की बुनावट खूबसूरत और चमक दमक वाली है। विष्णु राव के कैमरे ने उदयपुर को बहुत ही खूबसूरती से कैमरे में कैद किया है। पार्थवी डिज़ाइनर मनीष मल्होत्रा के बनाए बहुत ही सुंदर सलवार सूट पहनती है और फिल्म के दूसरे हाफ में जब घर से भागा ये युगल खाने और रहने के लिए संघर्ष कर रहा होता है तब भी उसके बाल कहीं से बांके नहीं होते। गनीमत यही रही कि कम से कम पार्थवी का मस्कारा इन दृश्यों में नहीं दिखता।

सैराट बिल्कुल ज़मीन से जुड़ी फिल्म थी। जब परश्या और आर्ची हैदराबाद की झोपड़पट्टियों में रहने को मज़बूर होते हैं, तो नाले के ऊपर बने शौचालय जाते वक्त आर्ची को आने वाली उबकाऊ आप महसूस कर सकते हैं। वह एक रईस परिवार से थी और गरीबी से तालमेल बिठाने का उसका संघर्ष हिला देने वाला था। और वह सीन भला कौन भूल सकता है जब ठेले पर खाना खाने के बाद परश्या दुकान पर रखे प्लास्टिक के मग से पानी पीता है और आर्ची के लिए मिनरल वॉटर की बोतल खरीदता है क्योंकि मग में झांकने के बाद आर्ची उससे पानी पी नहीं पाती। लेकिन, शशांक जिन्होंने फिल्म लिखी भी है, अपने दोनों किरदारों के लिए और अपने दर्शकों के लिए हालात इतने असुविधाजनक नहीं बनाना चाहते। तो घर से भागे पार्थवी और मधुकर एक अच्छे से हॉस्टल में शरण पाते हैं और उनका दयालु मेज़बान मधुकर को वाइन भी ऑफर करता है। पार्थवी को कपड़े धोना नहीं आता और यही उसका सबसे बड़ा वर्ग विस्मय भी है। धड़क के पार्थवी और मधुकर को हम परश्या और आर्ची की तरह जिंदगी से जूझते नहीं देखते और इसी वजह से हमारी भावनाएं उनके संघर्ष के साथ उतनी जुड़ नहीं पातीं।

पार्थवी का किरदार आर्ची की इच्छाशक्ति के मुकाबले भी कमज़ोर है। आर्ची एक बहुत ही खूबसूरत तरीके से लिखा गया किरदार था। ये वो अल्हड़ लड़की थी जो अपने भाई की मोटरसाइकिल चलाती है और ट्रैक्टर भी। वह अपनी बात पर कायम रहना जानती थी और उसे परश्या के प्रति अपने आकर्षण को ज़ाहिर करने में भी किसी तरह का डर नहीं था। कॉलेज क्लासरूम के एक यादगार दृश्य में वह उसकी तरफ इतनी देरतक एकटक देखती है कि वह बेचारा शर्म के मारे क्लास से बाहर चला जाता है। आर्ची की तरह पार्थवी भी लाड प्यार में बिगड़ी हुई है पर हमें उसमें ताक़त नहीं दिखती इसीलिए उसका एक किशोरी से एक महिला के किरदार में बदलना उतना यथार्थपूर्ण नहीं लगता। ये ऐसी लड़की है जो अपने कमरे में छिपकली देखकर चिल्ला उठती है। नायक के दोस्त भी जो सैराट में यादगार किरदारों में हैं, यहां पूरी तरह बेकार हो गए हैं। और कहानी के खलनायक, नायिका के पिता और भाई, फिल्म की बाकी की कमज़ोर कड़ियां हैं। आशुतोष राणा हालांकि अपनी चमकीली आंखों से निर्दयता दिखाने की पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन इसका असर इसलिए नहीं बनता क्योंकि ऐसा हम बहुत बार देख चुके हैं।

शशांक की जीत होती है फिल्म में अजय-अतुल के बनाए संगीत और फिल्म के मुख्य कलाकारों ईशान और जान्हवी को लेकर, दोनों को देखना वाकई सुखद एहसास है। ऐक्टिंग के मामले में ईशान मीलों आगे है। प्यार में खोए आशिक से लेकर घर से भागे एक भ्रमित लड़के के किरदार में वह बिल्कुल सटीक दिखते हैं। उनके अभिनय में भोलापन और प्रौढ़ता दोनों है। जान्हवी के बारे में ऐसा नहीं कह सकते हैं लेकिन वह अच्छी दिखती हैं और भरोसेमंद भी। वंशवाद पर चली रही बहस पर पानी डालते हुए कहा जा सकता है कि हिंदी सिनेमा से ये दो नए अच्छे कलाकार जुड़े हैं और शशांक ने दोनों से काम भी अच्छी तरह से लिया है।

फेनिल रूमानियत से भरी फिल्में बनाने में शशांक कामयाब रहे हैं। यहां वह अपने कंफर्ट ज़ोन से बाहर निकलते हैं और जातिप्रथा के कड़वे सत्य से दो दो हाथ करने के मामले थोड़ा कमज़ोर पड़ जाते हैं। किरादारों के सामने आने वाली अड़चनें चूंकि डराती नहीं है इसलिए वह बनावटी दिखती हैं। मैंने उनकी दूसरी फिल्म बद्रीनाथ की दुल्हनिया को नारीवाद का हल्का संस्करण बताया था। तो आप धड़क को सैराट का सतही संस्करण समझ सकते हैं। मेरी तरफ से इस फिल्म को ढाई स्टार्स।

Adapted by Pankaj Shukla, consulting editor 

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