गोल्ड – मूवी रिव्यू

लेखक-निर्देशक रीमा कागती के सिनेमा की एक अलग ही बात होती है, लेकिन एक स्पोर्ट्स फिल्म की अड़चनों ने उनकी आवाज़ को इस बार कमज़ोर किया है। फिर भी गोल्ड उस वक़्त एक महसूस किए जा सकने वाले क्लाइमैक्स तक पहुँचती है जब टीम एकजुट होकर जीत के लिए जुट जाती है।
गोल्ड – मूवी रिव्यू

निर्देशक – रीमा कागती

कलाकार – अक्षय कुमार, कुणाल कपूर, अमित साध, विनीत कुमार सिंह, सनी कौशल, निकिता दत्ता

हिंदी सिनेमा की स्पोर्ट्स फिल्मों एक तयशुदा खांचे में बंध चुकी हैं। जैसा कि विश्व सिनेमा में हो रहा है, यहां भी ये फिल्में उपेक्षित नायकों की कहानियां हैं। ज़्यादातर ये कहानियां किसी की जीवनी होती हैं या फिर सत्य घटनाओं पर आधारित होती हैं। सबमें एक बात एक सी है और वो ये कि ये सिर्फ खेल या बाधाओं को पारकर जीत हासिल करने की बात ही नहीं करतीं, ये राष्ट्रभक्ति की तगड़ी खुराक़ के साथ राष्ट्र निर्माण की भी बातें करती हैं। मैरी कॉम, दंगल और अब गोल्ड, ये फिल्में राष्ट्रगान के साथ फहराने वाले राष्ट्रीय ध्वज के साथ समाप्त होती है। इन फिल्मों में खेल सिर्फ खेल नहीं होता। खेल का मैदान यहां एक ऐसी भट्ठी बन जाता है जहां एक राष्ट्रीय चरित्र को सांचे में ढाला जाता है।

गोल्ड एक फॉर्मूला फिल्म है। फिल्म को लिखा और निर्देशित किया है रीमा कागती ने जो इसके पहले हनीमूल ट्रैवेल्स प्राइवेट लिमिटेड और तलाश बना चुकी हैं। यहां एक स्पोर्ट्स फिल्म की अड़चनों ने उनकी खास आवाज़ को सपाट कर गिया है  – ये वो निर्देशक हैं जिनकी पहली फिल्म एक जोड़े की कहानी कहती है और जो कहानी के आखिर में हमारे सुपरहीरोज़ बन जाते हैं. लेकिन, यहां कहानी में किसी तरह का बेचैन करने वाला कोई तत्व नहीं है – गोल्ड एक सीधी सपाट कहानी है जिसमें देशभक्ति का हथौड़ा बहुत बारीकी से चलता है। ये कहानी है भारत की 1948 के ओलंपिक खेलों में आश्चर्यजनक जीत की। ये पहला मौका था जब भारत ने एक आज़ाद देश की तरह इन खेलों में हिस्सा लिया और भारतीय हॉकी टीम ने अंग्रेजों को उनकी ही धरती पर हराया। अगर आप ये बात चूकते भी हैं तो हमें कम से कम तीन बार ये बात बताई जाती है कि ये मैच एक मौका है 200 साल की गुलामी का बदला लेने का। परदे के पीछे से आने वाली एक आवाज़ हमें बार बार समझाती रहती है कि परदे पर चल क्या रहा है। जो कुछ हो रहा है उसका अंदाज़ा पहले से होने लगता है। लेकिन फिर भी, रीमा किसी तरह इसे असरदार बनाए रखने में कामयाब होती हैं। मेहनत से मिली जीत का मौका जब तक बनता है, मैं वाकई कहानी से प्रभावित हो चुकी होती हूं।

लेकिन एक चेतावनी भी है, यहां तक पहुँचने के लिए आपको पूरे ढाई घंटे लगते हैं। गोल्ड बेवजह फैलाई गई फिल्म है। फिल्म का इंटरवल से पहले का हिस्सा आराम से आगे बढ़ता है। एक दूसरे से गुंथी हुई कहानियों के साथ, रीमा कहानी के दो मुख्य खिलाड़ियों को स्थापित करती हैं – राजसी परिवार का रघुवीर जिसका रोल अमित साध ने किया है और गांव से आए हिम्मत सिंह जिसका किरदार सनी कौशल ने निभाया है। हम सम्राट से भी मिलते हैं जो एक मशहूर खिलाड़ी है और आगे चलकर कोच बनता है, ये रोल कुणाल कपूर ने किया है। और, विनीत कुमार सिंह हैं इम्तियाज़ शाह के रोल में जो हॉकी टीम का कैप्टन है और जिसे बंटवारे के वक़्त पाकिस्तान जाने पर मज़बूर कर दिया जाता है। और, हां तपन दास। टीम का जूनियर मैनेजर जिसका रोल अक्षय कुमार ने किया है, ये एक हॉकी का दीवाना है जो टीम बनाता है और इसे जिताने के लिए पूरा ज़ोर लगाता है।

गोल्ड एक सत्य घटना की काल्पनिक कहानी है। मुझे नहीं पता कि कितने लोगों को इस जीत के बारे में पता है तो इसे लोगों तक पहुंचाने के लिए रीमा को बधाई देना बनता है। फिल्म को बहुत खूबसूरती से बनाया गया है। उस वक़्त की बातों को करीने से पेश किया गया है। कहीं कहीं नीरस होने के बावजूद कहानी पकड़ बनाए रखती है। हालांकि इंटरवल के बाद, फिल्म का संतुलन बिगड़ता है और ये थोड़ा परेशान करने लगती है। फिल्म में जब ड्रामा और कॉमेडी के बीच कबड्डी चलती है तो इसका सुर थोड़ा बिखरता है। मुझे नहीं पता कि फिल्म की कहानी कितनी काल्पनिक है लेकिन एक मौका ऐसा आता है जहां बौद्ध भिक्षु टीम को सहारा देने में अहम भूमिका निभाते हैं। तपन हर मुसीबत का हल इतनी आसानी से निकाल लेता है कि कई बार ये खटकता भी है। और, हां यहां हर अंग्रेज किरदार एक विलेन है। इसके अलावा कहानी में फेडरेशन पॉलिटिक्स है, टीम पॉलिटिक्स है और हैं एक टीम प्लेयर होने और राष्ट्रीय एकता के लंबे लंबे लेक्चर्स। यहां आपको 11 साल पहले रिलीज़ हुई कबीर खान की चक दे याद आ सकती है। हिंदी सिनेमा में अब तक ऐसी दूसरी फिल्म नहीं आई जो चक दे को पीछे छोड़ सके।

गोल्ड की कमज़ोर कड़ी हैं तपन के रोल में अक्षय कुमार। पहले तो आपको दिमाग पर ज़ोर डालकर उनका बेतरतीब सा बंगाली लहजा समझना होता है। तपन के किरदार में काफी जटिलताएं हैं। वह शराबी है, जुआ खेलता है लेकिन फिर भी हॉकी के लिए सबकुछ दांव पर लगाने को तैयार हो जाता है। अक्षय इस किरदार में खुशनुमा उत्साह तो लाते हैं लेकिन इसमें वजन कम है। तपन का किरदार मोटा मोटा देखा जाए तो अक्षय एक कॉमिक लहजे में बस किसी तरह निभा ले जाते हैं। तपन का अपना दुख और निराशा परदे पर निखर नहीं पाते। एक मौके पर ये धोती वाला बंगाली बाबू शराब पीता है और चढ़ गई है गाने में जो नाच करता है वह साफ तौर से उत्तर भारतीय दिखता है। गाना देखते हुए लगता ही नहीं कि ये गोल्ड का हिस्सा भी है।

तारीफ करनी होगी रीमा की जिन्होंने अक्षय के आसपास कुछ अच्छे अभिनेता भी रखे। विनीत के हिस्से सबसे ज़्यादा मार्मिक क्षण आए हैं और वह अपनी अनकही ताक़त के साथ परदे पर चमकने में कामयाब रहे। कुणाल और अमित भी अपने किरदारों के साथ इंसाफ़ करते हैं हालांकि अपनी राजसी पृष्ठभूमि दिखाने के लिए पूरी फिल्म में अमित कुछ ज़्यादा ही तने रहे हैं। और, मुझे खासतौर से सनी कौशल को देखना काफी अच्छा लगा। हिम्मत के गुस्सैल लेकिन काबिल किरदार में सनी ने अलग छाप छोड़ी है। तपन की तीखी बीवी के रोल में फिल्म की इकलौती अदाकारा मौनी रॉय कोई असर नहीं छोड़ पाती हैं- वह लगातार तपन को बस थप्पड़ ही मारती रहती है। और उसे भी मौका मिलता है ये कहने कहा कि वह 200 साल की ब्रिटिश हुकूमत का बदला ले रही है।

गोल्ड की ये पैबंद सी दिखती बातें और इसकी थका देने वाली लंबाई इसे नुकसान पहुंचाती हैं। लेकिन रीमा ने इन ढीले पड़े धागों को फिल्म के क्लाइमैक्स में चतुराई से तान दिया है। हालांकि कबीर खान की फिल्म चक दे में शाहरुख की सत्तर मिनट स्पीच के आगे ये कुछ भी नहीं है लेकिन फिर भी गोल्ड उस वक़्त एक महसूस किए जा सकने वाले क्लाइमैक्स तक पहुंचती है जब टीम एकजुट होकर जीत के लिए जुट जाती है। इसके अलावा मैं वैसे भी जब तिरंगा फहराता है तो मैं थोड़ा इमोशनल हो जाती हूं। मुझे लगता है कि आप भी इससे बच नहीं पाएंगे।

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