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साल 2018 में हिन्दी सिनेमा की 5 सबसे बेहतरीन फ़िल्में

Anupama Chopra

सिनेमा का कमाल यही है कि एक ही फ़िल्म में हर इंसान अलग फ़िल्म देखता है। हर देखनेवाले के अपने अनुभव, अपनी आकांक्षाएं और उसी हिसाब से अपनी अलग फ़िल्म। इसीलिए साल के अन्त में बनायी जानेवाली इन 'इयरएंडर' तालिकाओं पर इतनी बहसबाज़ी होती है। यह मेरी साल 2018 की सबसे पसन्दीदा पांच फ़िल्मों की सूची है। हितों के टकराव से बचने के लिए मैंने यहाँ 'संजू' पर विचार नहीं किया है। और 'सिम्बा' मैं समय रहते देख नहीं पायी, यथा वो भी इस प्रक्रिया में शामिल नहीं है।

लेकिन पहले मैं शुजित सरकार की 'अक्टूबर', अनुराग कश्यप की 'मनमर्ज़ियाँ', अनुभव सिन्हा की 'मुल्क' और थियेटर के लिए बनी लेकिन अन्तत: नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई चार निर्देशकों का साझा प्रयास 'लस्ट स्टोरीज़' का विशेष उल्लेख करना चाहूंगी। मुझे इन चारों फ़िल्मों में बहुत मज़ा आया।

और अब मेरी बेस्ट फ़ाइव…

5. मेघना गुलज़ार निर्देशित 'राज़ी'

'राज़ी' जैसी स्पाई फ़िल्म आपने पहले नहीं देखी होगी। सबसे पहले तो यही ख़ास है कि इसमें जासूस का मुख्य किरदार एक लड़की का है। इसके आगे यह पूरी तन्मयता से बताती है कि अपने मक़सद में कामयाबी पाने के लिए इस जासूस लड़की को कैसी-कैसी कीमत चुकानी पड़ती है। निर्देशक मेघना गुलज़ार पूरे संयम और संवेदनशीलता के साथ हमें 'सहमत' की कहानी सुनाती हैं। वो सहमत, जिसने वतन के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। आलिया भट्ट ने यहाँ एक सहमी हुई लेकिन अपने इरादे की पक्की लड़की की भूमिका में जान डाल दी है। यह मुश्किल भूमिका है। इस लड़की के हाथों वो सब होना है जो उसने कभी सोचा भी नहीं, किसी का खून भी। इससे भी खास है कि यहाँ तमाम पुरानी हिन्दी फ़िल्मों की तरह पाकिस्तानी किरदार खूंखार खलनायक नहीं दिखते। 'राज़ी' दिखाती है कि वे भी बस अपना कर्तव्य पूरा कर रहे हैं, सहमत की तरह।

4. राही अनिल बर्वे एवं आदेश प्रसाद निर्देशित 'तुम्बड़'

'तुम्बड़' रहस्यमय जादूगरी से भरी है और विज़ुअली चमत्कारिक है। कहने को यह हॉरर फ़िल्म है, लेकिन दशकों में फैली इसकी कथाभूमि दरअसल एक नीति कथा है जो हमें लालच का अन्तिम अंजाम दिखाती है। ऐसा लालच जो परिवार की पीढ़ियों को तबाह कर देता है। सोहम शाह का अभिनय यहाँ खास है, और उससे भी खास है वो नायाब दृष्टि जिससे इस कमाल की फ़िल्म का जन्म हुआ। यह हिन्दी सिनेमा के लिए बहुत ही भिन्न अनुभव है और अफ़सोस की बात है कि इसे कम लोगों ने देखा। मैं चाहूँगी कि आप इसे देखें। मेरा वादा है कि आप इस अनुभव से कुछ नया हासिल करेंगे।

3. अमर कौशिक निर्देशित 'स्त्री'

'स्त्री' में रचनाकार ने एक जॉनर फ़िल्म को उसके सर के बल खड़ा कर दिया है। हम इस फ़िल्म की दुनिया में ये सोचकर प्रवेश करते हैं कि ये चन्देरी शहर में पायी जानेवाली एक चुड़ैल की सीधी सपाट कहानी है, लेकिन अन्त तक आते-आते 'स्त्री' हमें बहुत ही चालाकी से अपने समाज में महिलाओं के साथ निरन्तर होनेवाले दोयम दर्जे के व्यवहार के प्रति सोचने को मजबूर कर देती है। फ़िल्म की सह-निर्माता और लेखक जोड़ी राज निधिमोरू और कृष्णा डीके ने यहाँ एक चुस्त, हाज़िरजवाब पटकथा लिखी है जो हमें डराती भी है और हँसाती भी है। इसके ऊपर तमाम अभिनेता − राजकुमार राव, पंकज त्रिपाठी, अपारशक्ति खुराना और अभिषेक बनर्जी चार चाँद लगा देते हैं।

2. श्रीराम राघवन निर्देशित 'अंधाधुन'

'अंधाधुन' में तक़रीबन दस मिनट से लम्बा एक प्रसंग आता है जहाँ एक अन्धे पियानोवादक की मौजूदगी में क़त्ल हुआ है, लेकिन वो उसका गवाह नहीं। इधर वो पियानो बजा रहा है, उधर हत्यारे मृत शरीर को ठिकाने लगा रहे हैं। यहाँ कोई संवाद नहीं हैं, हो भी नहीं सकते क्योंकि खूनी क्यों चाहेगें कि बैठे-बिठाए कोई उनकी बातें सुनकर गवाह बने। ऐसे में वे शरीर को घसीटते हुए आपस में इशारों से बात कर रहे हैं। इस साल हिन्दी सिनेमा में मैंने इससे बेहतर तरीके से रचा गया दूसरा प्रसंग नहीं देखा। पर यह तो पूरी फ़िल्म ही शानदार चमत्कारों से लबरेज़ है। 'अंधाधुन' बहुत मज़ेदार, बदमाशी से भरी है और अभिनेताओं ने इसे पूरे कौशल के साथ निभाया है। निर्देशक श्रीराम राघवन ने तब्बू, आयुष्मान खुराना, अनिल धवन के साथ एक अदद ख़रगोश को मिलाकर गज़ब का शाहकार रचा है।

1. अमित शर्मा निर्देशित 'बधाई हो'

मैं कबूल करती हूँ कि मुझे प्रेम कहानियाँ ख़ास पसन्द आती हैं और 'बधाई हो' में मुझे इस साल की सबसे शानदार प्रेमकहानी मिल गई − एक ऐसे अधेड़ जोड़े की प्रेमकहानी जिनके इस उम्र में बच्चा होने की खबर से भूचाल आ जाता है। मिस्टर और मिसेज़ कौशिक की भूमिका में नीना गुप्ता और गजराज राव ने नाज़ुक, दिल को छू लेनेवाली प्रेमकथा हमें दी है। और बड़बोली, खड़ूस लगती लेकिन मोम के दिल वाली सास की भूमिका में सुरेखा सीकरी ने यादगार काम किया है। 'बधाई हो' बहुत ही खूबसूरती से भावनाओं के उबाल वाले दृश्यों में सटीक हास्य को पिरो देती है। देखने में यहाँ कुछ भी चमत्कारिक नहीं, लेकिन यह फ़िल्म सीधा दिल पर असर करती है। और यही दिल का रिश्ता इसे मेरी साल की सबसे पसन्दीदा फ़िल्म बना देता है।

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