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रिव्यू: टीवीएफ – ये मेरी फ़ैमिली

Rahul Desai

निर्देशक : समीर सक्सेना

कलाकार: विशेष बंसल, अहान निरबान, मोना सिंह, आकर्ष खुराना, प्रसाद रेड्डी, रूही खान

साल 1998। जयपुर में गर्मियों की छुट्टियां मनाने पहुंचा एक औसत से शहर की औसत से फैमिली का औसत सा स्टूडेंट हर्षू (विशेष बंसल) पहले ही दिन ऐलान करता है, "गर्मियां मौसम नहीं एक त्योहार है।" ये मेरी फैमिली सीरीज शुरू होने का पहला मिनट ही टीवीएफ के इरादे साफ तौर पर बयां कर देता है, अतीत की ललक कोई जज़्बा नहीं बल्कि कारोबार है।

रेडियो पर 24 साल के सचिन तेंदुलकर की तूफानी बल्लेबाज़ी का गुणगान हो रहा है, एक बड़ा सा एयरकूलर कमरे में फिर से फिट किया जा रहा है और लोग उसे ऐसे देख रहे हैं जैसे घर में देवता आए हों, कॉर्डलेस फोन पर बातें करता एक बालक दूध में रूह अफज़ा मिला रहा है, बंगले की गैराज में एक एस्टीम VXI खड़ी है, आंद्रे अगासी और शक्तिमान के पोस्टर दीवारों पर नुमाया हो रहे हैं और सीरीज का टीन एजर हीरो उस अध्यापक से हिंदी न पढ़ने की जिद पर अड़ा हुआ है जिसकी शोहरत ही इसी बात को लेकर है कि जो बच्चा उसे ट्यूशन नहीं पढ़ता है उसे वह इम्तिहान में अंडा थमा देता है। असलम और शिबानी कश्यप का सिंगल हो गई है मोहब्बत तुमसे, हर्षू को वो सारे एहसास देता है जिसका वो तलबगार है- म्यूजिक वीडियो के फुज्जीदार बालों वाले मोहब्बत में खोए हीरो की तरह वह भी दीवानेपन की हद तक आ पहुंचा है। बस कुछ मिसिंग है तो कनेक्ट करने से पहले डायलिंग की आवाज़ें निकालने वाला इंटरनेट मोडम, याहू चैटरूम और आई सी क्यू के पॉप अप मैसेजस।

आजकल के हिंदी सिनेमा की तरह भारत का डिजिटल स्पेस भी भावुकताओं वाले 90 के दशक को एक भरे पूरे सिनेमाई जॉनर में तब्दील करने में जुट गया है। कितना अच्छा लगता है जब झुंझला देने वाले सेल फोन्स, हर डिजिटल लेन-देन में मांगे जाने वाली तमाम तरह की पहचानों और दिन रात नोटिफिकेशंस भेजते रहने वाले सोशल मीडिया के इस दौर में फैंटम सिगरेट और डब्लू डब्लू एफ के ट्रंप कार्ड वाकई बेदाग़ यादों की सहज और सरल भावनाएं हमारे सामने ले आते हैं। देश में अर्थ व्यवस्था के उदारीकरण के बाद वाला ये दशक उन दिनों की भी याद दिलाता है जब सब, सब कुछ सीख रहे थे और अगर आपने बदलाव के दो दौरों के बीच के इस समय का झटका झेला है तो आप इसे और अच्छी तरह से समझ सकते हैं। 90 के दशक ये बच्चे अब कैमरे के पीछे फैसला लेने वाली जमात के रूप में हैं और इसीलिए ये वे सारी खिड़कियां खोल रहे हैं जिनमें इनके कुछ बनने या फिर बिगड़ने वाली बातें शामिल हैं।

तो एक तरफ हमारे सामने होता है चेहरे पर जंग जीतने सा एहसास लिए बिस्वा कल्यान रथ जिसकी सारी स्टैंड अप कॉमेडी इसी बात पर घूमती है कि कैसे उसने पढ़ाई से लोहा लिया, कैसे इसका दबाव झेला, कैसे कोचिंग क्लास वाली पीढ़ी से निकलकर वह लाखों में एक बन गया, बिस्वा का जीवन दर्शन नई पीढ़ी से पहाड़ सी उम्मीदें लगाने वाली जेनरेशन से बच निकलकर हाशिए पर पड़ी चीजों से करियर बनाने से निकलता है।

और, दूसरी तरफ हैं टीवीएफ टाइप के किस्साबाज़, जिन्होंने उस दौर की बेहतर बातें याद रखने को प्राथमिकता दी, बेतकल्लुफी और मौजमस्ती का वो दौर जब इंजीनियर या डॉक्टर बनने की चूहा दौड़ ने बच्चों के भोलेपन पर ग्रहण नहीं लगा दिया था। अब ऐसा भी नहीं है कि ये मेरी फैमिली का पूरा माहौल ही इतना साफ सुथरा ही है- हर्षू की बेतुकी चपलता की झलक भी बीच बीच में दिखती रहती है। लेकिन, उसे पता हो न हो, देखने वालों को पता चलता रहता है कि आगे क्या होने वाला है। उसके हर गुजरते दिन का आखिरी सिरा किसी दिल दुखाने वाले मोड़ पर ही खत्म होने वाला है। सीरीज बनाने वालों ने कहानी ऐसी बुनी है कि वह एक न टाले जा सकने वाले भविष्य की तरफ इस तरह इशारा करती चलती है। दर्शकों को लगता है कि हो सकता है कि ये ही उसका आखिरी टेंशन फ्री समर वैकेशन हो और शायद फैमिली के साथ बिताया आखिरी समर वैकेशन भी। मसलन, हर्षू का भाई आईआईटी की कोचिंग करने बाहर जा रहा है और हर्षू का बोर्ड इम्तिहान वाला साल उस इलाके में शुरू होने वाला है जहां बचपन से ही दिमाग में बस कुछ न कुछ बड़ा कर दिखाने की घुट्टी भर दी जाती है।

हालांकि ये दिखता है कि फैमिली के डैड (आकर्ष खुराना) को थोड़ा खुले दिल वाला बनाने की कोशिश की गई है और वह बोलता भी है कि खेल से चरित्र निर्माण होता है, खेलने दो बच्चों को – लेकिन फिर भी बजाय कुछ और करने के वह अपने बड़े बेटे को दो साल वाले कोटा कोचिंग एक्सपीरियंस को झेलने भेजता ही है। ये भी समझ आता है कि बात बात पर झुंझलाने वाली मां (मोना सिंह) को थोड़ा समझदार बनाने की कोशिश जा रही है ये बुलवा कर कि, बच्चों को ये अभी पता नहीं है लेकिन जब आप बच्चे होते हैं तो गलती जैसा कुछ नहीं होता। लेकिन इसके बावजूद वह घर में हर बात को लेकर दबाव बनाती है और लगातार चिल्लाती दिखती है। ऐसा लगता है कि सीरीज बनाने वाले अपने बचपन में हो सकने वाले सुधार की बजाय वही दिखा रहे हैं जो उनके साथ वाकई में गुजरा होगा। ज्यादातर सीन्स में बातों को समझा कर बताने वाली एक आवाज़ सुनाई देती है (जी हां, हर्षू दर्शकों से भी बातें करता है) जो बताती है कि इस खास मौके पर वे क्या सोच रहे हो सकते थे बजाय इसके कि वे वाकई में क्या कर रहे हैं।

नतीजा ये होता है कि हर कोई थोड़ा ज्यादा खुलकर अपनी बात रख रहा है, थोड़ा ज्यादा नाटकीय और थोड़ा ज्यादा समझदार तरीके से, लगता ये है कि ये सारे किरदार उन लोगों ने डिज़ाइन किए हैं जिन्हें अपने समय में इन सारी चीजों को थोड़ा अलग तरह से महसूस करने की ख्वाहिश रही होगी। हर्षू का एक किताबी कीड़ा टाइप दोस्त भी है जो बड़ों की तरह बातें करता है और हमेशा कुछ विस्मयकारी सच का खुलासा करता रहता है कभी प्यार के दुश्मन जमाने के बारे में, कभी जीव विज्ञान के अध्यापक के उन दो अध्यायों के पढ़ाए बिना आगे बढ़ जाने के बारे में और कभी मोनिका लेविंस्की का अब तक पूरी दुनिया में मज़ाक बनाए जाने के बारे में, और ये ये भी इशारा करता है कि सीरीज के अब बड़े हो चुके लेखक शायद तब इन सब बातों को लेकर वाकई परेशान रहे होंगे।  

फ्लेम्स की औसत कामयाबी के बाद टीवीएफ की समीर सक्सेना निर्देशित अगली सीरीज ये मेरी फैमिली 90 के दशक की दशक की भरी पूरी दुनिया का बेहतर ख़ाका खींचती है। और ये मुख्य रूप से इसलिए भी मुमकिन हो सका है क्योंकि इसे बनाने वाले समीर सक्सेना ने अपने कथानक पर अनावश्यक चीजों का बोझ नहीं डाला है – पूरी कहानी बस गर्मियों की एक छुट्टियों की है, बस पांच लोगों का एक परिवार है और जयपुर देश का कोई भी गैर महानगरीय शहर हो सकता है। यहां सीरीज का कोई तयशुदा प्लॉट या किरदारों का कोई लंबा चौड़ा इतिहास नहीं है। हालांकि पूरा शो चतुराई से मोरल ऑफ द स्टोरी टाइप के सात एपीसोड्स में बांटा गया है, लेकिन ये देखते हुए कि हर्षू का किरदार सबके साथ तयशुदा क्रम में एक नतीजे पर पहुंचता है इन एपीसोड्स के टाइटल और बेहतर जैसे मां, पिता, बड़ा भाई और छोटी बहन हो सकते थे।

सीरीज बनाने वाले थोड़ा बहके भी है। जैसे कि शो के प्रायोजकों (म्यूचुअल फंड्स) का पिता के किरदार के साथ बेतरतीब इंटीग्रेशन  और 33 मिनट लंबे एपीसोड्स। लेकिन, इसके बाद भी वह 13 साल के एक बच्चे की हैरानगी वाली सोच के हिसाब से लम्हों में नाटकीयता लाने वाले अपने मूल खांचे पर सधे रहे हैं। जैसे कि स्लो मोशन में चलता एक क्रिकेट मैच और बैकग्राउंड में बजता तनाव बढ़ाने वाला म्यूजिक या उसके बर्थडे मूड्स को दुलराता भड़कीला सा पॉप म्यूजिक। ये भले देखने में सीरीज बनाने वालों की अति रचनाशीलता बताते हों लेकिन फिर भी ये उस लिहाज से फिट हैं कि इस उम्र के बच्चे कैसे अपने आसपास के माहौल को समझने की कोशिश करते हैं। वे बच्चे जिनकी फिल्मों, कॉमिक बुक्स और भव्यता की समझ से विकसित सोच चीजों को दूसरे ही तरीके से देखती है और ये वह समझ है जिसमें नज़र अब भी लोगों की आंख में आंख मिलाकर देखने की बजाय उनकी तरफ ऊपर करके ही उठती है।

सीरीज की इकलौती दिक्कत है इसकी कुछ ज्यादा ही सरल भाषा। निर्देशक समीर सक्सेना का बस चले तो वो किरदारों के ऊपर बबल्स बनाकर मन में चल रही बातें लिख भी दें। उनका मकसद इस बात पर भी ज़ोर देने पर रहा है कि हर अनुभव के साथ हर्षू बड़ा हो रहा है। बहुत मुमकिन है कि ये बच्चे का सबसे अहम समर वैकेशन हो, लेकिन उसके जीवन के तमाम पहलू इस चक्कर में दबे रह जाते हैं कि कैमरा हमेशा फैमिली के दाग़दार किरदार को पकड़ने में लगा रहता है। कुल मिलाकर देखें तो ये मेरी फैमिली एक ऐसी सीरीज बनकर रह जाती है जिसे देखने के लिए दर्शक को लगातार स्क्रीन के सामने बैठे रहने की ज़रूरत नहीं है। कथानक चलता भी है ऐसे कि हम जब चाहें तब इसे यूं ही चलता छोड़कर जा सकते हैं, अपने उन दिनों के मिलते जुलते एहसासों को याद कर सकते हैं और बिना किसी रुकावट के अपनी उन्हीं यादों को आगे बढ़ाते हुए इस घर की कहानी में शामिल हो सकते हैं।

आजकल के ज्यादातर शोज अतीत की ललक से पीड़ित है। कुछ नया न कर पाने की भरपाई दर्शकों के सामने पुरानी और मोहक यादों बढ़ा चढ़ाकर पेश करके की जा रही है। गुज़रे जमाने से मोहब्बत ये मेरी फैमिली के लिए कारोबार हो सकता है। लेकिन, सीरीज की मधुर और सुकून देने वाली शून्यता को देखते हुए कहा जा सकता है कि कारोबार भी कभी कभी बहुत व्यक्तिगत हो सकता है।

(ये मेरी फैमिली के सभी सातों एपीसोड्स आप टीवीएफप्ले पर देख सकते हैं)

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