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‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ रिव्यू: बिखरी पटकथा, तकनीकी रूप से कमज़ोर प्रोपगैंडा फ़िल्म

Anupama Chopra

'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' के बारे में बात यहीं से शुरु करनी होगी कि ये एक शुद्ध प्रोपगैंडा फ़िल्म है। यूं देखा जाए तो ये एक सोचा समझा कदम है। आम चुनाव के साल में ये फ़िल्म हमें सत्ता के गलियारों के भीतर तक ले जाती है और सीधा नाम लेने से भी नहीं हिचकती। फ़िल्म हमें एक गुणी, लेकिन अनिच्छुक नायक देती है − पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के रूप में। लेकिन हम देखते हैं कि इस नायक को खुद उनकी ही पार्टी तथा पार्टी के शीर्ष नेताओं – सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी, द्वारा पंगु बनाया जा रहा है। यह सारा घटनाक्रम घटित होता देखने और स्मृति में दर्ज करने का काम कर रहे हैं डॉ मनमोहन सिंह के विश्वासपात्र सलाहकार संजय बारू, जो यूपीए के दौर में पत्रकार की भूमिका छोड़कर उनके मीडिया एडवाइज़र बने। यह फ़िल्म बारु की पुस्तक "द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर: द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ़ मनमोहन सिंह" पर आधारित है। याने ये संजय बारू का नज़रिया है। वे राजनेता नहीं हैं लेकिन कॉंग्रेस के भीतरी हलकों तक उनकी पैठ रही है। इसीलिए यह कहानी भीतरखाने का हाल बताती है। इसमें भी कोई शंका नहीं कि यहाँ सोनिया और राहुल गाँधी के किरदार घोर चालाक और स्वार्थी बन उभरकर आते हैं और यह सारा कुछ अन्तत: असली नायक के मंच पर आने का मार्ग प्रशस्त करता है − वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी।

जैसा मैंने कहा, ये सोचा समझा कदम है। मेरा सवाल बस इतना है कि जब आप एक प्रचार फ़िल्म बना ही रहे हैं तो इतना चलताऊ माल क्यों तैयार करना? 'द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर' का कथानक बिखरा हुआ है और ये तकनीकी रूप से बहुत कमज़ोर फ़िल्म है। अपनी पहली फ़िल्म बना रहे विजय रत्नाकर गुट्टे अनुपम खेर और अक्षय खन्ना जैसे दो बढ़िया अभिनेताओं के होते हुए भी साधारण पटकथा के चलते मात खाते हैं। फ़िल्म की कहानी इतनी बिखरी हुई है कि लगता है जैसे उन्होंने किताब में से कोई भी पन्ना फाड़कर उसे शूट कर लिया है। और ऐसा तब है जब फ़िल्म के स्क्रीनप्ले के साथ चार लेखकों का नाम जुड़ा है, जिनमें एक नाम 'न्यूटन' के लिए प्रसिद्धि पाने वाले मयंक तिवारी का भी है। कहानी वहाँ से शुरु होती है जहाँ सोनिया गाँधी 2004 में चुनाव जीतने के बाद स्वयं पीएम की कुर्सी पर बैठने के बजाए डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का निर्णय लेती हैं। लेकिन यह फैसला सत्ता के दो केन्द्र खड़े कर देता है और मौका आने पर ना चाहते हुए भी मनमोहन सिंह को गाँधी परिवार के हित पार्टी और देश से ऊपर रखने पड़ते हैं।

गुट्टे ने अपनी फ़िल्म में बारू को ऐसे सूत्रधार की भूमिका दी है जो 'हाउस ऑफ़ कार्ड्स' के फ्रैंक अंडरवुड की तरह बीच-बीच में दर्शकों से सीधा संवाद करता रहता है। बारू हमारे लिए भीतरखाने की खबरें लेकर आते हैं। वो भारतीय राजनीति को एक 'अजीब महाभारत' की संज्ञा देते हैं। डॉ सिंह यहाँ भीष्म पितामह की भूमिका में हैं, जिनमें कोई बुराई नहीं है पर फैमिली ड्रामा के विक्टिम हो गए। बारु चालाक, वफ़ादार और अड़ियल हैं। डॉ सिंह से उलट, वो इस महाभारत के दांवपेच खूब समझते हैं। ये निभाने के लिए बहुत दिलचस्प भूमिका है और अक्षय ने यहाँ बेहतर काम किया है। उनमें आत्ममुग्धता, आकर्षण और नकचढ़ेपन का दिलचस्प मेल दिखाई देता है। उनका फैशन स्टेटमेंट भी गौर करनेवाला है। मैं तो उनके बारीकी से तराशे गए डिज़ाइनर सूट्स और गुलाबी टाई से नज़र ही नहीं हटा पा रही थी। लेकिन गुट्टे ने कैमरा से सीधे बात वाले प्रयोग का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल कर इसे नष्ट कर दिया है। कहानी कभी भूत में तो कभी भविष्य में भागती रहती है और कई जगह संवादों को बीप कर दिये जाने की वजह से हम किरदारों के होठों को पढ़ने और अपने अन्दाज़े लगाने में ही फंसे रह जाते हैं।

लेकिन मेरे लिए फ़िल्म का सबसे कमज़ोर पहलू अनुपम खेर द्वारा निभाई गयी डॉ मनमोहन सिंह की भूमिका है। चाहे आपकी राजनैतिक वफ़ादारियाँ कुछ भी हों, यह तो सब मानेंगे कि डॉ मनमोहन सिंह जैसी समझ वाला और सभ्य राजनेता ढूंढे से मिलना मुश्किल है। उनका संकोची स्वभाव इसका परिचायक है कि सत्ता के शीर्ष पर रहकर भी वो कभी उसके आदी नहीं हो पाये। अनुपम खेर ने यहाँ मेहनत तो बहुत की है लेकिन वो उनके किरदार को पकड़ ही नहीं पाये। ऐसे में वे सिर्फ़ बाहरी नकल में उलझकर रह गए। खेर ने अतिरिक्त प्रयास करने की कोशिश में डॉ सिंह के किरदार को तक़रीबन कैरीकेचर बना दिया है। फ़िल्म मनमोहन सिंह के किरदार को दूसरों द्वारा संचालित कठपुतली की तरह प्रस्तुत करती है, अनुपम खेर ने शायद इसे अभिधा में ले लिया। इसके अलावा सोनिया गाँधी की भूमिका में सुज़ेन बर्नेट तथा राहुल की भूमिका में अर्जुन माथुर भी बिल्कुल एकपक्षीय और फ़ीके रहे हैं। हाँ, फ़िल्म आपकी हँसी की खुराक पूरी करने के लिए अर्णब गोस्वामी तथा वीर सांघवी जैसे पत्रकारों के स्क्रीन वर्ज़न भी उपलब्ध करवाती है।

फ़िल्म असली न्यूज़ फुटेज में वास्तविक लोगों को दिखाने के बाद उनके फ़िल्मी किरदारों को दिखाने का काम करती है, लेकिन ये समूचे प्रयोग को और ज़्यादा अविश्वसनीय बना देता है। कई दृश्यों में तकनीकी खामियाँ दिखती हैं और कुछ जगह तो ऐसा लगता है जैसे किरदारों को पहले ग्रीन स्क्रीन के आगे शूट कर बाद में बैकग्राउंड जोड़ दिया गया है।

क्या मैं यहाँ जोकर की ये लाइन चुराकर इस्तेमाल कर सकती हूँ कि आखिर हम इससे तो बेहतर प्रोपगैंडा फ़िल्म के हक़दार हैं!

मैं इसे एक स्टार दूंगी।

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