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ठग्स आॅफ़ हिन्दोस्तान: बेमतलब की पीरियड एपिक जिसने दिल बेचकर ग्राफ़िक्स पर पैसा लुटाया

Rahul Desai

निर्देशक: विजय कृष्ण आचार्य

अभिनय: आमिर ख़ान, अमिताभ बच्चन, फ़ातिमा सना शेख़, लॉयड आेवेन, कैटरीना कैफ़

आख़िर 300 करोड़ जैसी बड़ी रकम खर्च कर भी कतई महत्वाकांक्षाहीन फ़िल्म कौन बना सकता है − धूम 3 के रचनाकार बना सकते हैं! ठग्स आॅफ़ हिन्दोस्तान बॉलीवुड द्वारा रची किसी हैलोवीन पार्टी जैसी है − मज़ाकिया सी लगती आैर आत्मकेन्द्रित पर कतई बेमतलब फैंसी ड्रेस पार्टी जिसमें ख़ातिर करने के नाम पर दर्शकों का पत्ता काटा जा रहा है। नतीजा चंद थके हुए सितारों के साथ ऐसा एक्शन एडवेंचर जिसमें ना एक्शन है आैर ना एडवेंचर। फ़िल्म की कहानी साल 1795 से शुरु होती है, आैर इसी चक्कर में सितारे साहसी दिखने का थोड़ा नाटक कर लेते हैं। यहाँ जंगी जहाजों, तलवारों, तोपों, घोड़ों, टोपियों आैर भव्य किलों से अन्य गैरज़रूरी  चीजों जैसे अभिनय, पटकथा, संगीत आैर साउंड डिज़ाइन की कमी पूरी की गई है। ऐतिहासिक ड्रामा होते हुए भी ठग्स आॅफ़ हिन्दोस्तान  भारत के भूगोल को अपनी जूती की नोक पर रखती है। जोधपुर, थाईलैंड आैर माल्टा की लोकेशंस को मिलाकर यहाँ ऐसा अजब रौनकपुर कम दुर्गापुर कम गोपालपुर बनाया गया है जिसमें टापू भी है, मैदान भी है, तटवर्ती इलाका भी है, दलदली ज़मीन भी है पर बन्दरगाह एक नज़र नहीं आता। इस गड़बड़झाले का अकेला उद्देश्य यही समझ आता है कि समन्दर से ज़मीन पर कुछ चमत्कारी दिखते ऐसे एक्शन दृश्य फ़िल्मा लिये जायें, जिनमें बैकग्राउंड कुछ यूं बदले जैसे फ़िल्म में अमिताभ बच्चन की आंखों के लेंस का रंग बदलता है।  

ठग्स आॅफ़ हिन्दोस्तान की शुरुआत एक छोटी सी बच्ची, सफ़ीरा से होती है जिसने ईस्ट इंडिया कम्पनी के दुष्ट अधिकारी क्लाइव (लॉयड आेवेन) के हाथों अपने माता-पिता − रौनकपुर के विद्रोही नवाब आैर बेग़म, का क़त्ल होते हुए देखा है। क्लाइव, जिन्हें अपने मज़े के लिए आप क्लाइव आेवेन भी कह सकते हैं, को ज़िन्दा रहना इतना पसन्द है कि बन्दूकें भी उनके सामने आते ही अपनी गोलियाँ खो देती हैं। रोनित रॉय यहाँ नवाब की दिलचस्प भूमिका में हैं। आख़िर वे इतनी सारी हिन्दी फ़िल्मों में पत्थरदिल बाप की भूमिका निभा चुके हैं कि यहाँ इससे बचने की कोशिश में वे जान लड़ा देते हैं आैर सफ़लतापूर्वक फ़िल्म की शुरुआत में ही शहीद हो जाते हैं।

वैसे सफ़ीरा ये भी सोच होगी कि जिस अजर-अमर योद्धा खुदाबक्श आज़ाद (अमिताभ बच्चन) को उसके परिवार की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी दी गई थी, ऐन मौके पर वो कहाँ गायब हो गया। सब कुछ उजड़ जाने के बाद घोड़े पर सवार वो ऐसे आता है जैसे बॉलीवुड मसाला फ़िल्म में अपराध हो जाने के बाद पुलिसवाला ठुल्ला आता है। वो आता है आैर स्लो-मोशन में सफ़ीरा को बचाकर ले जाता है। हालांकि यहाँ बताना मुश्किल है कि ये वाकई स्लो-मोशन था या फिर किसी उत्साही कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर की रची भारी-भरकम कॉस्ट्यूम के नीचे बच्चन साब का बूढ़ा शरीर सांस नहीं ले पा रहा था।

कहानी ग्यारह साल आगे बढ़ जाती है। फ़िल्म में फ़िरंगी मल्लाह नाम से आमिर ख़ान की एंट्री होती है। वो गधे पर सवार, अंग्रेज़ों से पैसा कूटनेवाले एक छुटभैये उठाईगीर हैं जिन्हें देखकर लगता है कि वो किसी विदेशी फ़िल्म के सेट से सीधे यहाँ आ गिरे हैं। उनके जोकरनुमा किरदार को एस्टेब्लिश करने में जो वाहियात एडिट है, रैप वीडियोज़ आैर एकता कपूर के 'के' सीरियलों वाले ट्रिपल टेक पीछे छूट गए हैं। ये कैप्टन जैक स्पैरो के देसी वर्ज़न जैक 'चिड़िया' हैं, आैर ज़ोर इस पर है कि इन पर कतई भरोसा नहीं किया जाना चाहिए। फ़िरंगी इस फ़िल्म के मुख्य, पर सबसे उबाऊ किरदार हैं। उन्हीं की वजह से फ़िल्म की लम्बाई संयत 120 मिनट से पसरकर थकाऊ 165 मिनट हो गई है। बताया गया है कि फ़िरंगी की फ़ितरत धोखा, लालच आैर यशराज फ़िल्म्स की सेंसिबिलिटीज़ से ज़्यादा तेज़ी से पाला बदलना है। लेकिन कैप्टन क्लाइव की दी आज़ाद को पकड़ने की सुपारी उठाने के बाद इस कतई स्याह-सफ़ेद दिखती लड़ाई में फ़िल्म बार-बार फ़िरंगी के किरदार के माध्यम से ग्रे शेड्स भरने की असफ़ल कोशिश करती है।

आमिर ख़ान, जिनके तैयारी के साथ निभाए गए मननशील किरदार मशहूर हैं, 'भड़कीले' किरदारों को किसी आैर ही मनस्थिति के साथ निभाते हैं। सीक्रेट सुपरस्टार, रंग दे बसंती, पीके, डेल्ही बेली के गाने आैर कुछ हद तक दिल चाहता है में भी वो बहुत प्रदर्शनकारी दिखाई देते हैं। जैसे दर्शक परदे पर किसी किरदार को नहीं, एक भांड को देखना चाहते हों। उनके अभिनय में एक नकल उतारने वाला भाव रहता है, जैसे इन 'तुच्छ किरदारों' को वे बहुत ही नीची नज़रों से देख रहे हों। उनके लिए ये सभी किरदार विदूषक हैं, ऐसे विदूषक जिनका अपना कोई जीवन संसार नहीं आैर वे इन सभी में अंदाज़ अपना अपना वाला हास्य भर देते हैं। वे अपनी आंखों आैर जीभ का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं आैर ऐसे में फ़िरंगी का किरदार एक चलते-फिरते कार्टून में बदल जाता है। ऐसा कार्टून जिसका अकेला उद्देश्य बच्चन साब के भारी-भरकम एकालाप को काउंटर करना है।

दाद देनी होगी पचास पार के आमिर आैर सत्तर पार के बच्चन साब की जिन्होंने ये शारीरिक मेहनत मांगनेवाला फ़िल्म प्रोजेस्ट करना मंजूर किया, लेकिन फ़िल्म देखकर लगता है कि उनका ध्यान क्या-कैसे करना है पर था ही नहीं। ऐसा ही फ़िल्म के निर्देशक के बारे में भी कहा जा सकता है, जिन्होंने फ़िल्म का तक़रीबन हर फ्रेम रचते हुए बस एक ही बात का ध्यान रखा है कि जनता बच्चन आैर आमिर को एक ही फ़िल्म में पहली बार कास्ट करने के उनके चमत्कार पर फ़िदा हो जाए। यही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है, कहानी-फहानी सब गई भाड़ में। इसी के चलते फ़िल्म के पानी आैर ज़मीन पर फ़िल्माए गए तमाम एक्शन दृश्य आपस में ठीक से जुड़ते ही नहीं। लगता है कि उनके बीच में से कुछ ज़रूरी शॉट किसी ने उड़ा लिए हैं। किरदार हवा में कूदते दिखते हैं आैर फिर सीधे गिरते, आैर इसके बीच उनके भौतिकी के नियमों को चुनौती देते हवा में उड़नेवाले सीन गायब हैं। हम देखते हैं कि खुदाबक्श जलते हुए जहाज़ को लेकर अकेला ही निकलता है, आैर जहाज़ खुद-ब-खुद ही गुड़कता हुआ ज़मीन से समन्दर में पहुँच जाता है किसी आज्ञाकारी बालक की तरह।

नृत्यांगना सुरैया की भूमिका में कैटरीना कैफ़ फ़िल्म में ऐसी हैं जैसे किसी क्रिकेटर को बतौर  क्षेत्ररक्षण विशेषज्ञ टीम में लिया हो। वो फ़िल्म में दो ही सीन में आती हैं, आैर वो दोनों सीन गाने हैं। हाँ, यहाँ उनके किरदार आैर अदाकारा में एक अद्भुत समानता दिखाई देती है − कैटरीना का पूरा करियर जवाँ दिल दर्शकों का घटिया फ़िल्म पर से ध्यान हटाने में निकला है आैर यहाँ सुरैया भी हिन्दुस्तानियों के टुच्चे प्लान से अंग्रेज़ों का ध्यान भटकाने के लिए नाच रही है। वैसे फ़िल्ममेकर चूक गए, यही तो सुनहरा मौका था जब कैटरीना के ब्रिटिश बैकग्राउंड का फ़ायदा उठाया जा सकता था। इसी के चलते इतनी सारी फ़िल्मों में कैटरीना कैफ़ को लंदन-रिटर्न हीरोइन बनाकर पेश किया जा चुका है कि मैं तो गिनती ही भूल चुका हूँ। पर यहाँ वो ख़ालिस उर्दू बोलने की शोशिश करती पाई गईं। आश्चर्य नहीं कि फ़ातिमा सना शेख़ का चेहरा यहाँ हमेशा तकलीफ़ में डूबा दिखाई देता है। इस तमाशे के बीच कोई महसूस करेगा भी क्या। पुरुषों की इस दुनिया में वो कैटरीना की पूरक उपस्थिति भर हैं। दंगल में तो वो बस कुश्ती कर रही थीं, यहाँ वो गुरुत्वाकर्षण से कुश्ती लड़ रही हैं।

फ़िल्म चलते एक घंटा भी नहीं बीता होगा कि बोरियत के चलते मैं अपने ही दिमाग़ में नई नई कहानियाँ बनाने लगा। किरदारों की बैकस्टोरीज़! जैसे अब खुदाबक्श के वफ़ादार बाज़ को ही लें जो हर दृश्य में आसमान पर मंडराता रहता है आैर फ़िल्म में घट रही तमाम इंसानी मूर्खताअों पर निगाह रखता है। कहीं ये बाज़ एक आैर महान पीरियड एपिक मोहनजो दाड़ो में आए हत्यारे मगरमच्छ का पुनर्जन्म तो नहीं, जो बॉलीवुड की तमाम वाहियात ऐतिहासिक फ़िल्मों का प्रायश्चित करने आया है? कहीं ये दुष्ट क्लाइव आेवेन, जो साथी अंग्रेज़ों से भी ख़ालिस उर्दू में बात करता है, लगान वाले कैप्टन रसैल का दादाजी तो नहीं? आैर अगर ऐसा है तो क्या ये भी अच्छी बल्लेबाज़ी कर लेता होगा? क्या खुदाबक्श असल में शहंशाह है जो भूल से गलत युग में आ गिरा है? सफ़ीना बड़ी होकर क्या मणिकर्णिका बनेगी? आैर सबसे ज़रूरी − ठग्स आॅफ़ हिन्दोस्तान क्या मोहनजो दाड़ों आैर मंगल पांडे फ़िल्मों की कुंभ के मेले में बिछड़ी बहन है, जिनकी उंगली हमारे टोन-डेफ़ स्टूडियोज़ के हाथों से हमेशा के लिए छूट गई?

Adapted from English by Mihir Pandya

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