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‘गली बॉय’ रिव्यू: मुम्बई शहर की ज़िन्दादिली के नाम लिखा एक चमत्कारिक प्रेम पत्र

Anupama Chopra

निर्देशक: ज़ोया अख़्तर

कास्ट: रणवीर सिंह, आलिया भट्ट, कल्कि कोचलिन, सिद्धान्त चतुर्वेदी, विजय वर्मा, विजय राज

क्या आपके सपनों की उड़ान इससे तय होनी चाहिए कि उनका पूरा होना सम्भव है या नहीं? 'गली बॉय' इस सवाल का जवाब एक मज़बूत 'ना' के साथ देती है। एक कमाल के सीन में मुराद, जो धारावी में रहनेवाला रैपर है, ड्राइवरी का काम करने वाले अपने पिता को बोलता है कि वो अपने सपनों की उड़ान को किसी हक़ीक़त के पिंजरे में कैद नहीं करेगा। और अगर ज़रूरत पड़ी, तो वो इस हक़ीक़त के पिंजरे को तोड़कर उड़ जाएगा अपने सपनों की ओर।

ज़ोया अख़्तर की इस जादुई फ़िल्म से ये तो बस एक चमत्कारी लम्हा भर है। 'गली बॉय' की कहानी झोपड़पट्टी से निकलकर स्टारडम के शिखर पर पहुँचे रियल-लाइफ़ रैपर्स नेज़ी और डिवाइन की ज़िन्दगी से अपना कच्चा माल लेती है। मुम्बई की इस संगीत से भरी दुनिया में हिप-हॉप भी है तो न्यूयॉर्क की सड़कों पर पैदा हुआ आधुनिक प्रतिरोधी संगीत भी। लेकिन 'गली बॉय' की सबसे ख़ास बात ये है कि भले ही आप इस संगीतमय दुनिया से पूरी तरह अपरिचित हों, जैसे मैं थी, ये फ़िल्म फिर भी आपको अपनी जादूगरी से विस्मृत कर देगी।

इसका श्रेय जाता है ज़ोया और उनकी उम्दा टीम को − सह लेखक रीमा कागती, संवाद लेखक विजय मौर्य, डाइरेक्टर ऑफ़ फ़ोटोग्राफ़ी जय ओझा, सम्पादक नितिन बैद, प्रॉडक्शन डिज़ाइनर सुज़ैन कैप्लन मेरवांजी, कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर अर्जुन भसीन और पूर्णामृता सिंह जिन्होंने इस कहानी को अपनी कला से खूब निखारा है। इसका संगीत भले बाहर से आया हो, इसकी दुनिया बिल्कुल प्रामाणिक और सच्ची है। 'गली बॉय' का ज़्यादातर हिस्सा धारावी में फ़िल्माया गया है, लेकिन किसी भी मौके पर सिनेमैटोग्राफ़र जय ओझा इसे संजीदा किस्म की शोख़ी देने की कोशिश नहीं करते।

ये फ़िल्म मुम्बई शहर की ज़िन्दादिली के नाम लिखा गया प्रेम पत्र है। इस पागलपन से भरे जादुई शहर में कुछ भी होना मुमकिन है और 'गली बॉय' इसका ही उत्सव है, लेकिन वो समन्दर या गेटवे ऑफ़ इंडिया या मरीन ड्राइव के ट्रेडमार्क स्टॉक शॉट्स के साथ इसे नहीं जोड़ती। क्योंकि शहर के ये जगमग हिस्से मुराद की दुनिया का हिस्सा नहीं। उसकी दुनिया में मटमैला रंग हावी है, तंग गालियाँ हैं और लगातार ये अहसास है कि जैसे कोई भीड़ आपको चारों ओर से दबोच रही है। मुराद के पिता शहर की 'जगमग' की बातें करते हैं। लेकिन ये चमकीली दुनिया मुराद की पहुँच से बहुत दूर है। वो तमाम रौशनियाँ शीशे पार हैं और ये ड्राइवर का बेटा अपने पिता की अनुपस्थिति में उनकी जगह को भरता, इस मंहगी गाड़ी में कैद है। बस आख़िर में जाकर वो उस पर अपना नूर बरसाती हैं। नहीं, इसे स्पॉइलर मानकर ना पढ़ें।

ज़ोया और रीमा इस किस्म के नितांत भिन्न संगीत को भी परिचित धुनों में पिरोकर हमारे लिए ज़्यादा सहज सुलभ बनाती हैं। आख़िर 'गली बॉय' एक कमिंग-ऑफ़-एज स्टोरी है, जिसमें परिस्थितियों का शिकार किरदार अन्तत: विजेता बनकर निकलता है। हम जानते हैं कि कहानी के अन्त में क्या होगा, लेकिन इस कहानी का मज़ा इसे कहने के तरीके में है।

ज़ोया की सबसे बड़ी खूबी उनकी तीक्ष्ण निगाह है और इसी के चलते वे एक ही सीन में अनगिनत बारीकियाँ भर देती हैं। तो जब मुराद एक आलीशान फ़्लैट का बाथरूम इस्तेमाल करता है तो वो तौलिये को काम में लेने के बाद ठीक वैसे ही मोड़कर रख देता है जैसा वो पहले था, जिससे इस शाही साज-सज्जा में ज़रा भी ख़लल ना पड़े। उधर जब हम मुराद को उसकी प्रेमिका सफ़ीना के साथ पहली बार लोकल बस में देखते हैं, तो उनमें एक लफ़्ज़ भी बातचीत नहीं होती। इसके बदले वो इशारों से ही एक-दूसरे को अपनी बातें समझा देते हैं, जो उनके सालों से चले आ रहे रिश्ते की भीतरी तसल्ली को हमारे सामने ज़ाहिर कर देता है।

सफ़ीना का किरदार आलिया भट्ट द्वारा निभाए अभी तक के सर्वश्रेष्ठ किरदारों में से एक है। वो आत्मविश्वास से भरी है, महत्वाकांक्षी है और 'गुंडी' भी है, लेकिन अच्छे अर्थों में। एक पारम्परिक मुस्लिम परिवार से आनेवाली सफ़ीना अपनी पहचान खुद बनाने को लेकर दृढ़निश्चयी है। मुराद से अपने रिश्ते की भावी डगर वो खुद तय करती है। आलिया यहाँ सफ़ीना के किरदार की खूबसूरती से भरी उत्तेजना को अपने अभिनय में बखूबी कैप्चर करती हैं। उसमें एक मोह लेनेवाली अनिश्चितता है। आप कभी नहीं बता सकते कि वो आगे क्या करनेवाली है।

रणवीर भी उतने ही उम्दा हैं। यहाँ उस अतिरंजित स्टार की परछाई भी कहीं नज़र नहीं आती जिसकी भड़कीले कपड़ों में तस्वीरें आप साक्षात्कारों में और इंस्टाग्राम पर देखते आये हैं। मुराद अनिश्चितताओं से भरा है और बहुत अलग है। उसे नहीं पता की इस दुनिया में उसकी सही जगह कौनसी है। लेकिन रैप में उसको उसकी आवाज़ मिल जाती है और वो अपने गुस्से को कविता में बदल देता है। रणवीर की आँखों में यहाँ लालसा भी है, उम्मीद भी और उदासी भी। वो मुराद को किसी हीरो माफ़िक प्ले नहीं करते। यहाँ ना अकड़ है दिखावा। ये वाला रणवीर तो गर्वीली पीड़ाओं से भरा है। मुराद और सफ़ीना के बीच घटते प्रेम दृश्य दिल को छू लेनेवाली नज़ाकत से भरे हैं।

फ़िल्म को सबसे ज़्यादा फ़ायदा ये बात पहुँचाती है कि निर्देशक ज़ोया अख़्तर यहाँ नायक या नायिका के किरदारों को बाक़ी कास्ट के बदले ज़रा भी विशेष ट्रीटमेंट नहीं देती हैं। फ़िल्म विजय वर्मा के साथ शुरु होती है, वे फ़िल्म में मुराद के दोस्त मोईन के किरदार में हैं, जो मुम्बई की किसी सड़क पर रात के गुप्प अँधेरे में चले जा रहे हैं। उनके पीछे रणवीर आता है, बिना किसी लम्बी-चौड़ी भूमिका को बाँधे। हम समझते हैं कि ज़िन्दा धड़कते किरदारों से भरी इस फ़िल्म में मुराद बस एक और किरदार भर है।

यहाँ छोटे छोटे किरदार भी बहुत शानदार हैं, जैसे वो दूर के रिश्तेदार जो मुराद को भलमनसाहत में सुझाव देते हैं कि अगर उसे सिंगर बनना ही है तो वो ग़ज़ल में ट्राई क्यों नहीं करता? वर्मा, मुराद को सिखानेवाले मेंटर एमसी शेर की भूमिका में सिद्धान्त चतुर्वेदी और क्रूर पिता की भूमिका में विजय राज, सब तो यहाँ कमाल हैं। यह फ़िल्म के कास्टिंग निर्देशकों करण माली और नंदिनी श्रीकेंट की प्रतिभा का सबसे बड़ा सबूत है कि हर छोटा-बड़ा किरदार फ़िल्म में यूँ लगा है जैसे वो इसी भूमिका को करने के लिए बना था।

आखिर में फ़िल्म का संगीत जो फ़िल्म में बाकायदा एक समूचे किरदार की हैसियत रखता है। कुल 18 धुनों से रचा यह साउंडट्रैक जिसके निर्माण में 54 रचनाकार शामिल रहे, और जिसे गायक-लेखक अंकुर तिवारी ने सुपरवाइज़ किया, अपने आप में एक नायाब खूबसूरत चीज़ है। तिवारी ने रैप को ठीक ही 'एक लेखकीय क्रांति' कहा है बजाये इसे 'संगीतमय क्रांति' कहने के। इसके शब्द किसी हथौड़े से हमारी चेतना पर पड़ते हैं। यह प्रतिरोध की कविता है जो आपके भीतर भी ज़रूर कुछ बदलेगी।

हाँ एक बात से सावधान रहियेगा − कुछ रैप के युद्ध फ़िल्म में ऐसे हैं जो चलते हैं तो बस चलते ही चले जाते हैं। 'गली बॉय' कुल 2 घंटे 36 मिनट लम्बी है और आप इस अवधि में कभी बेचैन भी होंगे। फ़िल्म की सबसे कमज़ोर कड़ी अमीर, अमेरिका से आयी गोरी रक्षक स्काई का किरदार है जिसकी भूमिका कल्कि कोचलीन ने निभायी है। यह किरदार ठीक से लिखा नहीं गया है और कल्कि अपनी बनते जितना बेहतर हो सकता है यहाँ करती हैं। लेकिन जब भी आपका फ़िल्म से ध्यान हटने लगता है, ज़ोया एक इमोशन से भरा दमदार सीन लाकर हमें वापस कहानी में खींच लेती हैं।

आखिर में अपने आँसू पोंछते हुए मैं ना सिर्फ़ मुराद की तमाम मुरादें पूरी होने की कामना कर रही थी, फ़िल्म के हर अच्छे-बुरे किरदार के लिए मेरे मन में यही दुआ थी। यहाँ तक कि मुराद के दुष्ट पिता के लिए भी।

यही इस फ़िल्म का असली जादू है। मैं इसे चार स्टार देना चाहूँगी।

Adapted from English by Mihir Pandya

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