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राज़ी की मेकिंग की वो अनोखी कहानी जिसमें शामिल हैं गुलज़ार, अक्षय कुमार और एंजेलीना जोली के किस्से

Gayle Sequeira

फिल्म राज़ी में आलिया भट्ट ने जिस जासूस का किरदार निभाया है, वह कौन है? सिर्फ एक इंसान जानता है।

कारगिल युद्ध में मोर्चा संभालने के लिए जब लेफ्टिनेंट कमांडर हरिंदर सिक्का अपना घर-परिवार छोड़कर निकले थे तो उनको इस बात की उम्मीद भी नहीं रही होगी कि वह लौटेंगे तो उनके पास कहानी होगी एक ऐसी कश्मीरी महिला की जिसने देश के लिए पाकिस्तान में रहकर जासूसी की। आठ साल तक इस सूचना पर काम करने के बाद उन्होंने 2008 में अपना उपन्यास छपने को भेजा जिसका नाम रखा गया- कॉलिंग  सहमत। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध पर बनी इस फिल्म में, ये किरदार पाकिस्तानी सेना के एक अफसर से इसलिए शादी कर लेता है कि वह भारतीय नौसेना के लिए खुफिया जानकारियां इकट्ठी कर सके। आईएनएस विक्रांत को डुबाने की पाकिस्तान की इस साज़िश के पर्दाफाश ने तब कई ज़िंदगिंया तबाह होने से बचा ली थीं। मेघना गुलज़ार की फिल्म राज़ी अब भी बॉक्स ऑफिस पर कमाल का कारोबार कर रही है। इस किताब के लेखक हरिंदर सिक्का बता रहे हैं कि क्यों वह चाहते थे कि मेघना के पिता गुलज़ार ही इस फिल्म को निर्देशित करें और क्या सलाह दी उन्होंने आलिया भट्ट को जब फिल्म की शूटिंग शुरू हुई, एक एक्सक्लूसिव बातचीत:

सहमत के बारे में बताइए और ये भी कि आखिर ऐसा क्या था जिसने आपको उनकी ज़िंदगी पर किताब लिखने के लिए प्रेरित किया?

जब 1999 में कारगिल की लड़ाई शुरू हुई तो मुझे इस बात का ज़रा सा आभास नहीं था कि ये कॉलिंग सहमत की शुरूआत होगी। युद्ध के मैदान में जाने के लिए अपने माता पिता, बीवी और बच्चों को छोड़ कर जाने को तब मैं अपनी बहादुरी माना करता था। दिक्क़त मेरे मिज़ाज में थी। मैं ये जानने की कोशिश कर रहा था कि कैसे हमारा खुफिया तंत्र फेल हुआ और कैसे दुश्मन ने हमारी ज़मीन पर ठिकाने बना लिए। एक अफसर ने तब उठकर बताया, "सर, हर कोई देशद्रोही नहीं हैं।" उसी ने मुझे सहमत के बारे में बताया। सहमत यानी उसकी अपनी मां। मेरा सारा अभिमान पानी का बुलबुला साबित हुआ। ये एक ऐसे परिवार की बात थी जिसने अपने इकलौते वारिस को देश की सुरक्षा में लगा दिया। 2000 में मैंने बड़ी मुश्किल से सहमत का कोटला में पता लगाया। उन्होंने मुझसे बात करने से साफ़ इंकार कर दिया। मैं उनके घर के बाहर सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक बस एक बोतल पानी के साथ बैठा रहा। उन्होंने भी दरवाजा नहीं खोला, लेकिन जब उन्हें लगा कि मैं मानूंगा नहीं, उन्होंने मुझे भीतर बुला लिया। सबसे पहले जो मेरा सवाल उनसे था वो ये कि आखिर उन्होंने श्रीनगर की खूबसूरत पहाड़ियों को छोड़ कोटला में क्यों रहना शुरू कर दिया। उन्होंने कहा क्योंकि अब्दुल यहां रहता था। जब मैंने पूछा कि कौन अब्दुल? उनका जवाब था, वह ब्रिगेडियर सैयद के नौकर थे और मर चुके हैं। और, मैंने जब ये पूछा कि आखिर अब्दुल मरा कैसे, उन्होंने कहा, "मैंने उन्हें एक ट्रक के नीचे कुचल दिया।" सोचिए एक छोटी कद काठी की, खूबसूरत, समझदार औरत के बारे में, जिसे देखने से ये भी नहीं लगता कि ये एक मक्खी मार पाएगी, उसने एक इंसान को मार दिया। हमारा देश इन योद्धाओं के बारे में जानता तक नहीं है। इसके बजाय हम हर कश्मीरी को आतंकवादी मान लेते हैं। मैं चाहता था कि ये कहानी लोगों तक पहुंचे लेकिन सहमत ने ज़्यादा कुछ बताया नहीं। इसके बाद मैं दो साल में दो बार पाकिस्तान गया। वहां मैंने सहमत के ससुर – एक मेजर जनरल – का नाम ढूंढ निकाला, ये भी खोज निकाला कि वह कहा रहते थे और किस बैरीकेड को तोड़कर सहमत ने अब्दुल को कुचल दिया था। इस जानकारी ने मुझे बाकी बातें पता करने में काफी मदद की।

एक इंटरव्यू में मेघना गुलज़ार ने कहा है कि किताब में बहुत कुछ ऐसा है जिसके बारे में ज्यादा विस्तार से नहीं लिखा गया, जैसेकि सहमत ने रॉ में ट्रेनिंग के दौरान और क्या क्या सीखा? क्या आपने ये सब सहमत की असली पहचान छुपाए रखने के लिए छोड़ दिया? आपने अपनी कहानी कहने और अपनी नायिका की पहचान छुपाए रखने के बीच संतुलन कैसे बनाए रखा?

सहमत ने मुझे मेरी किताब का ढांचा दिया – कैसे उनके शौहर की मौत हुई, कैसे उनके वालिद का इंतकाल हुआ। बाकी का 70 फीसदी – कैसे वह आला अफसरों के संपर्क में आई – मेरी अपनी कल्पना है। वह एक बहुत ही हिम्मती महिला रही हैं और मैं उनके इस आभामंडल से चकित रह गया। मैं लगातार सूचनाएं खोजता रहा और मुझे ये किताब पूरी करने में आठ साल लगे। किताब की पहली कॉपी मैंने अपने एक दोस्त के साथ साझा की जिसने मुझे उनका असली नाम इस्तेमाल करने को लेकर आगाह किया। मैंने फिर अपनी नायिका का नाम कोडनेम में रखा सहमत, जिसका मतलब है 'समझौता'।

सबसे पहले आपने गुलज़ार से संपर्क किया ताकि वे इस किताब को अपना सकें। क्या आपको हमेशा से ये लगता था कि इस किताब में फिल्म बनाए जाने का माद्दा है?

हां, मैं चाहता था कि गुलज़ार ही इस पर फिल्म बनाएं क्योंकि मैंने उनकी तमाम फिल्में देखी हैं। अपनी फिल्म कोशिश (1972) में उन्होंने बहुत कम शब्दों में एक विषय को गहराई से पेश किया। मुझे लगा कि जो शख्स कोशिश बना सकता है वही सहमत को अपना सकता है। दोनों में समानताएं हैं- सहमत ज्यादा बोलती नहीं थी और कोशिश में भी पति-पत्नी दोनों न सुन सकते हैं, न बोल सकते हैं। इसके अलावा गुलज़ार के कुछ गाने हैं जो मैं कभी नहीं भूल सकता- प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम दो।
मैं अपनी किताब की पहली दस प्रतियां लेकर उनके पाली हिल स्थित घर गया था। मुझे उनसे मिलने का वक़्त पाने में एक महीने का इंतज़ार करना पड़ा। गुलज़ार ने ये तो कहा कि उपन्यास बहुत अच्छा है, लेकिन इस पर फिल्म बनाने से उन्होंने साफ इंकार कर दिया, ये कहते हुए कि मुझे अपनी ऊर्जा एक फिल्म पर नष्ट नहीं करनी चाहिए।

इस मुलाक़ात के साल भर के भीतर ही, मैं अपने एक दोस्त, जो वक़ालत करते हैं, के साथ गुलज़ार से मिलने फिर पहुंच गया। वह ये जानकर काफी झल्लाए कि मैं फिर से उनके पास वही प्रस्ताव लेकर पहुंच गया था। उन्होंने कहा कि उन्हें मेरे विचार अच्छे लगते हैं लेकिन उन्होंने फिल्में बनाना छोड़ दिया है।

इस किताब के फिल्ममेकिंग राइट्स बेचने का सफर कैसा रहा? मेघना ने बताया है कि तमाम दूसरे प्रोडक्शन हाउस भी ये राइट्स खरीदने के लिए कोशिशें कर रहे थे।

नानक शाह फकीर (राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म) बनाने के बाद मैं कॉलिंग सहमत पर फिल्म बनाने का का निश्चय कर चुका था। जंगली पिक्चर्स की प्रेसीडेंट प्रीति साहनी ने मुझसे संपर्क किया था लेकिन तब मैं फिल्म के राइट्स बेचने का इच्छुक नहीं था और मेरे पास इतने पैसे भी नहीं थे कि मैं खुद ये फिल्म बना सकता। पब्लिसिटी डिज़ाइनर राहुल नंदा ने मेरी फिल्म नानक शाह फकीर का कान फिल्म फेस्टिवल में प्रमोशन करने में मेरी 2014 में मदद की थी। उनके कहने पर मैं साहनी से मिला और एक धनराशि की मांग उनके सामने रखी। उन्होंने कहा कि पूरी फिल्म इंडस्ट्री में किसी ने इतनी बड़ी रकम नहीं मांगी है। मैंने मोल-तोल करने से साफ इंकार कर दिया। आठ महीने बाद, वह फिर लौटीं और उन्होंने मेरी शर्तें मान लीं।

रेड चिलीज़ (शाहरुख खान का प्रोडक्शन हाउस) के क्रिएटिव डायरेक्टर समर खान ने 2009 में मुझसे इस बारे में संपर्क किया था। हालांकि, वह चाहते थे कि कहानी की दशा और दिशा फिल्म में थोड़ा अलग हो। उन्होंने कहा कि वह मेरी कहानी का इस्तेमाल तो करेंगे लेकिन इसके राइट्स नहीं खरीदेंगे और मेरा नाम फिल्म के क्रेडिट्स में देंगे। मैंने इसके बारे में शाहरुख खान को लिखा और बताया कि उनके प्रोडक्शन हाउस में क्या हो रहा है। एक हफ्ते बाद, मुझे समर खान का माफ़ीनामा मिला।

मैं चाहता था कि फिल्म के हीरो अक्षय कुमार हों। अक्षय एक दरियादिल इंसान है जिन्होंने मेरा साथ दिया और मैं उनका इस बात के लिए काफी एहसान भी मानता हूं। दुर्भाग्य से, तब वह एक फिल्म कर रहे थे और हमारी तारीखें मैच नहीं हो पा रही थी। अक्षय ने ही मुझे मेघना से मिलवाया। मुझे लगा कि ये नियति ही रही होगी कि मैं गुलज़ार साब को चाहता था और मुझे उनकी बेटी मिल गई। मैंने तलवार (2015) देखी और मेघना से बात की क्योंकि मैं जानना चाहता खि वह कालिंग सहमत को लेकर पूरी तरह समर्पित रहेंगी और उनके लिए बस ये एक और फिल्म भर नहीं होगी। मुझे उनमें वह सबकुछ मिला जो मैं उनके भीतर के डायरेक्टर में चाह रहा था – जोश, जज़्बात और काबिलियत। उनकी बातों में ईमानदारी और सच्चाई दिखी मुझे। उनके पास सहमत को लेकर लाखों सवाल थे और हमने इस बारे में खूब बैठकें की। आखिर में, मेघना को सहमत का किरदार पूरी तरह समझ में आ गया।

फिल्म की स्क्रिप्ट में आप कितना शामिल रहे? क्या आपने फिल्म में कलाकारों के चयन में भी दिलचस्पी दिखाई?

जंगली पिक्चर्स के साथ मेरा जो करार हुआ, उसमें कुछ बातें बहुत साफ थीं – जैसे कि फिल्म मेघना डायरेक्ट करेगीं, मैं स्क्रिप्ट का सुपरविजन करूंगा, गुलज़ार गाने लिखेंगे और आलिया भट्ट फिल्म की मेन लीड होंगी। मैंने और मेरी पत्नी ने घंटों इस बात पर बिताए होंगे कि कौन सी ऐक्ट्रेस इस रोल के लिए फिट होती है, लेकिन दूसरी कोई ऐसी मिली ही नहीं। एक बार तो मैंने एंजेलीना जोली से संपर्क करने का मन बना लिया था। मुझे एक बच्ची मिली जो बिल्कुल एंजेलीना जैसी थी तो मुझे लगा कि ये सहमत के बचपन का रोल कर लेगी और बड़ी सहमत के रोल में एंजेलीना बिल्कुल फिट रहेगी। जब आलिया का चयन हो गया, मैं उनसे मिला और उन्हें समझाया कि सहमत कैसी दिखती थी, कैसे बर्ताव करती थी, अपने माता-पिता से उसके रिश्ते कैसे थे और कितना प्यार करती थी वो अपने अब्बू से। आलिया एक बहुत ही स्मार्ट और काम से काम रखने वाली ऐक्ट्रेस हैं और मैं उनसे मिलते ही जान गया था कि वह इस रोल में कमाल करेंगी।
मैंने मेघना को सहमत के घर के कुछ फोटोग्राफ्स भी दिए ताकि उन्हें फिल्म के सेट्स बनाने में मदद मिले।

किसी दूसरे क्रिएटिव इंसान को अपना वह सब कुछ दे देना जिस पर आपने इतनी कड़ी मेहनत की हो, और उन्हें इसके अपने हिसाब से मतलब निकालने देना, कितना मुश्किल होता है? कभी इस बात की बेचैनी रही कि फिल्म बनकर तैयार होगी तो कैसी दिखेगी?

मैं कभी बेचैन नहीं रहा। मुझे खुशी थी कि करन जौहर भी इस प्रोजेक्ट में शामिल हुए। खुशी इस बात की थी कि चीजों को जितनी बारीकी से वह देखते हैं, वह उनको दूसरों से बड़ा बनाता है। उनकी हर बात पते की और गाढ़ी होती है। भवानी अय्यर (पटकथा लेखक) ने बहुत बढ़िया काम किया है। मैं शूटिंग पर सिर्फ दो बार गया, मुझे डर था कि अगर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा तो शायद दिल दुखे। लेकिन पहली ही बार जब मैं सेट पर गया, आलिया ने अपना सीन पूरा किया और मेरे पास आकर बोली, "सर, क्या ये आपके हिसाब से ठीक था?" मेरे पास हां करने के अलावा कोई दूसरा जवाब ही नहीं था। शुरू में मुझे फिल्म के नाम "राज़ी" को लेकर थोड़ी असहमति थी क्योंकि मैं इसका नाम कॉलिंग सहमत रखना चाहता था लेकिन मैंने गुलज़ार की इच्छा की कद्र करना ज़्यादा मुनासिब समझा।

सिनेमा की पहुंच को देखते हुए, आपको क्या उम्मीद है कि लोग सहमत की कहानी से क्या सीखेंगे?

मैं चाहता हूं लोग इस बात को समझें कि हमारे देश के कोने कोने में हजारों सहमत हैं। मैं चाहता हूं कि वे धरती की इज़्ज़त करना सीखे। जैसेकि सहमत कहती है, "वतन के आगे, कुछ भी नहीं।"

Adapted from English by Pankaj Shukla, consulting editor

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