सत्यमेव जयते – मूवी रिव्यू

मिलाप मिलन ज़ावेरी की जॉन अब्राहम और मनोज बाजपेयी स्टारर सत्यमेव जयते ऐसी फिल्म है जो आपको कुचलती हुई गुजर जाती है और पीछे कुछ छूट जाता है तो वो है एक थका हारा और पूरी तरह से खुशी मनाना भूल चुका दर्शक
सत्यमेव जयते – मूवी रिव्यू

निर्देशक – मिलाप मिलन ज़ावेरी

कलाकार – जॉन अब्राहम, मनोज बाजपेयी, आइशा शर्मा, नोरा फतेही, अमृता खानविलकर

ज़िंदगी छोटी है तो सीधे मुद्दे की बात करते हैं – सत्यमेव जयते एक दुखदायी फिल्म है। सिनेमा की आत्मा की हत्या करने वाली ये वैसी ही फिल्म है जैसी निर्देशक मिलाप मिलन ज़ावेरी  की पिछली फिल्म मस्तीज़ादे थी। बस फर्क ये है कि उस फिल्म में तमाम जगहों पर सनी लिओनी के कपड़े उतारने के सीन थोड़ा आंखों को चुभते कम थे। यहां खून है, हड्डियों के साथ टूटते शरीर हैं और झुलसता इंसानी गोश्त है। फिल्म खत्म होते होते, मैं तो बस ये मनाने लगी कि मिलाप सेक्स कॉमेडीज ही बनाएं तो बेहतर क्योंकि इस तरह की राष्ट्रभक्ति खतरनाक है, भद्दी है और सपाट तरीके से कहें तो दर्शकों के साथ किसी तरह अटकती नहीं है।

शुरूआत होती है जॉन अब्राहम से जो एक इंसान को ज़िंदा जला रहे हैं। पूरी फिल्म में वह भ्रष्ट पुलिसवालों को अलग अलग तरीके से क्रूर सज़ाएं देते हैं – एक के शरीर में वह लकड़ी का कुंदा घोंप देते हैं, दूसरे को मुक्कों से ऐसे कूटते हैं जैसे आटा गूंथा जा रहा हो और फिर एक और की बेल्ट से चमड़ी उधेड़ देते हैं। और ये सब इसलिए ठीक बताया जाता है क्योंकि वह वीर है, दिन में एक कलाकार और अंधेरी रातों में हर जुर्म मिटाने को निकला देवदूत या कि कहें शहंशाह। वीर पुलिस फोर्स से गंदगी साफ करना चाहता है। या कि जैसा वह खुद कहता है – शपथ ली है जिन्हें ख़ाकी पहनने का हक़ नहीं उन्हें ख़ाक़ में मिलाने की। मूल रूप से देखा जाए तो वह एक सीरियल किलर है, बस उसका दिमाग अभी चल रहा है। उसके रास्ते की अड़चन है सच की राह पर चलने वाला डीसीपी शिवांश राठौड़, जिसका किरदार निभाया है मनोज बाजपेयी ने। ये मानने में मुझे कोई गुरेज नहीं कि दोनों के बीच चलने वाले चूहे-बिल्ली के खेल में थोड़ी देर मज़ा भी आता है।

फिर डीसीपी राठौड को जासूसी का परमज्ञान प्राप्त होता है जब उसे पता चलता है कि आखिर पुलिसवालों की हत्या का ये खेल है क्या? और यही वो बिंदु है जहां आकर सत्यमेव जयते बेइरादे ही सही पर हास्यास्पद हो जाती है और इतनी ज़्यादा खराब होने लगती है कि उसमें भी दर्शकों को अच्छा ढूंढने का मन करता है। इंटरवल के बाद फिल्म से ये मज़ा भी गायब हो जाता है। हमें बताई जाती है वो घिसी पिटी कहानी जिसने वीर को इन हत्याओं को अंजाम देने के लिए उकसाया। यहां सबसे ज़्यादा दिमाग कहानी लिखने वालों ने इस बात पर लगाया है कि ये पुलिसवाले मरेंगे कैसे। एक पूरा सीक्वेंस मोहर्रम के मातम के बीच सेट किया गया है जहां वीर खुद को छुरियों से घायल कर रहा है और एक अय्याश पुलिसवाले को मौत के हवाले कर रहा है। परदे पर कुछ नज़र आता है तो बस खून ही खून। अगर ये सब देखकर भी आपको उबकाई नहीं आती है तो निगम बोमज़न की सिनेमैटोग्राफी ज़रूर ऐसा करा देगी – कैमरा लगातार चक्कर काटता रहता है ताकि परदे पर चल रहा भाषण किसी तरह आपके गले उतर जाए। टॉप एंगल शॉट्स तो ऐसा लगता है कि इस सिनेमैटोग्राफर के सबसे फेवरिट शॉट्स हैं

मिलाप कोई भी काम सरलता से नहीं करते। परदे पर मचे कोहराम को उभारने के लिए कान फाड़ देने वाला बैकग्राउंड स्कोर है जो लगता है रामगोपाल वर्मा की किसी खराब फिल्म में इस्तेमाल होने से बच गया था। संवाद सारे ऐसे पंच के साथ लिखे गए हैं कि वे जॉन जो भी कर रहे हैं उन्हें और सहारा दे सकें। एक सीन है जिसमें एक गरीब आदमी बीवी को एक अमीर आदमी की कार ने कुचल दिया है और वहां मौजूद पुलिसवाला इससे निगाहें फेरकर पैसा बनाने में लगा है। जब औरत का पति रोते हुए फरियाद करता है तो पुलिस वाला कहता है – कचरे को इंसाफ नहीं मिलता कचरा सिर्फ साफ होता है। एक नई नई आई ऐक्टर आयशा शर्मा के साथ फिल्म में एक अजीबोगरीब साइड ट्रैक भी है। आयशा जानवरों की डॉक्टर हैं। और वीर की हॉबी जानकर तो आप हैरान ही हो जाएंगे। जी हां, जब वीर पुलिसवालों को ज़िंदा नहीं जला रहा होता है या कोयले से शौकिया पेटिंग्स नहीं बना रहा होता है तो वह घायल जानवरों को अस्पताल पहुंचा रहा होता है। वीर की आंखें भर आती है जब वो किसी कुत्ते को दर्द से कराहते देखता है। सच मानिए, मैं ये बना रही, ये भी इस फिल्म में ही है।

जहां तक अभिनय की बात है तो जॉन के लिए ये काम उनके भुजदंड करते हैं। उनके शानदार शरीर सौष्ठव को बहुत ही करीने से दिखाया गया है – यहां तक कि जब वह तथाकथित इंसाफ कर रहे होते हैं तो उनकी मांसपेशियों के भी क्लोजअप दिखाए गए हैं। इसीलिए मनोज के हिस्से में अपनी और जॉन दोनों की अदाकारी का कोटा पूरा करने की जिम्मेदारी आ जाती है – वह तमाम तरह के मुंह बनाते हैं, चेहरे पर गुस्सा भी लाते हैं और पूरी मेहनत करते हैं कि किसी तरह ये बेतुकी फिल्म थोड़ा बहुत कायदे की लग सके।

लेकिन, ये मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। सत्यमेव जयते ऐसी फिल्म है जो आपको कुचलती हुई गुजर जाती है और पीछे कुछ छूट जाता है तो वो है एक थका हारा और पूरी तरह से खुशी मनाना भूल चुका दर्शक।

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