लस्ट स्टोरीज मूवी रिव्यू

अनुराग कश्यप, ज़ोया अख़्तर, दिबाकर बनर्जी और करन जौहर जैसे निर्देशक जब हिंदुस्तानी माहौल में काम वासना को लेकर कहानियां बनाते हैं तो हर किसी का ध्यान इसकी तरफ तुरंत जाता है। महिला शरीर के लालच की इन चार कहानियों को नेटफिल्क्स ने एक साथ संकलित करके पेश किया है।
लस्ट स्टोरीज मूवी रिव्यू

निर्देशक: अनुराग कश्यप, ज़ोया अख़्तर, दिबाकर बनर्जी, करन जौहर
 
कलाकार: राधिका आप्टे, भूमि पेडनेकर, मनीषा कोइराला, कियारा आडवाणी

प्रेम में परतें नहीं होतीं। और, वासना? इसकी परतें सुलझाने में उम्र गुजर जाती है। हिंदुस्तानी संदर्भ में दोनों को अलग अलग करके समझना अब भी दूर की कौड़ी है। वासना इंसानी प्रवृत्ति में शुरू से रही है और इसकी असल समस्या है, इसके साथ आने वाला अपराध बोध, शर्म, खुद को असहज महसूस करना और इसे लेकर मन में मंडराते रहने वाले अजीब से विचार। लस्ट स्टोरीज में निर्देशकों अनुराग कश्यप, ज़ोया अख़्तर, दिबाकर बनर्जी और करन जौहर ने वासना के इसी आवेग, उलझन और उथल-पुथल को इसके हिज्जे अलग अलग करके देखने की कोशिश की है।

चार फिल्मों के इस संकलन का शीर्षक दरअसल लोगों को अपनी आकर्षित करने का और किसी तरह दर्शकों को इसके वीडियो पर क्लिक करने के लिए मजबूर करने का तरीका भर है, क्योंकि ये फिल्में इससे कहीं ज़्यादा बड़ी बातें करती हैं। ये सही है कि हर फिल्म में सेक्स की बात है लेकिन अगर आपको हीरोइनों के जीवट से ज़्यादा उनके जिस्म देखने में दिलचस्पी है, तो फिर ये आपके लिए नहीं हैं। क्योंकि, सेक्स यहां बस एक ट्रिगर है – ये फिल्में बात करती हैं इंसानी रिश्तों में होने वाली गंदगी की, हमारे भीतर तक घुस चुके वर्ग विभाजन की और महिलाओं को होने वाली उन दिक्कतों के बारे में जिनके चलते वे न तो कभी सेक्स की चाह जता पाती हैं और न ही कभी इसमें खुलकर आनंद उठा पाती हैं। और, इन चारों फिल्मों में से एक में करन जौहर ने वो कर दिखाया है जो फैमिली वैल्यूज को लेकर आपके एंथम रहे – कभी खुशी कभी ग़म – के बारे में आपका नज़रिया हमेशा के लिए बदल देगा। तारीफ करनी होगी करन की उन्होंने अपनी तरह के सिनेमा को बनाने का पश्चाताप इस तरह से किया।

मेरी फेवरिट फिल्मों के बारे में पूछें तो मैं ज़ोया और दिबाकर की फिल्मों का नाम लूंगी। ज़ोया की कहानी बहुत ही साधारण, पर दिल को छू लेने वाली है और दिबाकर की फिल्म एक विक्षुब्ध रात की ऐसी नाज़ुक कहानी है जिसमें तीन लोगों की ज़िंदगियां थोड़ा और समझदार हो जाती हैं। ये कहानियां बहुत ही संभाल कर और इस समझदारी के साथ कही गईं हैं कि कि इंसान आखिर इंसान ही होता है और वह है भी तो गलतियों का पुतला। ये बताती हैं कि कैसे हमारे रिश्ते पल भर में टूटकर बिखर सकते हैं। छल से, कपट से, अनदेखा करने से या फिर इज्ज़त न मिलने से क्या होता है, ये आपको ये फिल्में दिखाती हैं। लेकिन, हां, इसमें किसी तरह कोई फैसला सुनाने वाली बात भी नहीं हैं। जीवन फिर भी चलता रहता है, अपने साथ ज़माने की नज़र में दिखने वाले कलंक की गठरी संभाले।

इस फिल्म संकलन में महिलाओं को खासतौर से उनके पूरी आभा के साथ ही दिखाया गया है। राधिका आप्टे, भूमि पेडनेकर, मनीषा कोइराला और कियारा आडवाणी, ये सब बारीकी से लिखे गए ऐसे किरदार करती हैं, जिन्होंने कायदे मानने में कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई। राधिका जो कॉलेज की एक पगलैट टाइप प्रोफेसर कालिंदी के किरदार में हैं, उसके भीतर सबसे कम संवेदनशीलता है। अनुराग की फिल्म में, कालिंदी का किरदार किसी महिला का एक बुरा लेकिन फिर भी लुभावना सपना है। उसके जो रिएक्शन होते हैं उन्हें देखकर उसके स्टूडेंट्स की तरह फिल्म देखने वाले भी हक्का बक्का रह जाते हैं। फिर भी फिल्म के बाद कालिंदी याद रह जाती है, हालांकि तीस मिनट से ऊपर की ये फिल्म कुछ ज्यादा ही लंबी हो गई है। एक हद तक जाने के बाद राधिका का अभिनय और उनका किरदार खुद को दोहराने लगता है।

दिबाकर की फिल्म भी लंबी है लेकिन इसमें कहानी के हालात और कलाकारों का अभिनय आपको बांधे रखते हैं। मनीषा यहां एक ऐसे किरदार में हैं जिसकी खूबसूरती और ज़िंदगी दोनों घिस चुके हैं। एक नौकरानी के रोल में भूमि ने भी बहुत अच्छा काम किया है, वह एक ऐसी नौकरानी के रोल में हैं जो समझना चाहती हैं कि आखिर इतनी बड़ी दुनिया में उसकी कोई जगह है भी कि नहीं। लेकिन, पूरे फिल्म संकलन में जो कलाकार और किरदार सबसे ज़्यादा चौंकाता है वह है कियारा, एक नई नवेली दुल्हन के रूप में। कियारा ने एक ही किरदार में सरलता और बग़ावत दोनों को बहुत अच्छे तरीके से साधा है।

पुरुष किरदारों को इन फिल्मों में ज़्यादा तवज्जो नहीं मिली है। ये किरदार अपनी साथिनों के मकड़ी के जालों से उलझे व्यहार में फंसे रह जाते हैं। कालिंदी के घबराए हुए से प्रेमी के तौर पर सैराट फेम आकाश तोमर बिल्कुल फिट बैठे हैं। और, करन की फिल्म में विकी कौशल भी प्रभावित करते हैं, वह यहां एक ऐसे लापरवाह पति के किरदार में है जिसको ये समझ ही नहीं है कि सेक्स में उसकी पत्नी को भी वैसा ही आनंद आना चाहिए जैसा उसे आता है। भले ये पुरुष किरदार बुद्धू न दिखते हों लेकिन वह बस सिर्फ अपना सुख देखते हैं, जैसे कि ज़ोया की फिल्म में नील भूपलम का किरदार या फिर दिबाकर की फिल्म में संजय कपूर का निभाया किरदार। और, राज़ी के बाद कामयाबी का जश्न मना रहे जयदीप अहलावात भी हैं, हमेशा की तरह दमदार।

मुझे इस तरह के संकलन बहुत पसंद आते हैं क्योंकि ये आपको एक ही फिल्म में अलग अलग तरह के नज़रिए और अनुभवों से रू ब रू कराते हैं। मुझे पक्का नहीं पता कि नेटफ्लिक्स जैसे प्लेटफॉर्म पर ये फॉर्मेट कितना काम करेगा क्योंकि यहां आपके पास फिल्में अलहदा तरीके से देखने और अपनी पसंद के क्रम के हिसाब से देखने की छूट है। जब आप के पास इस बात की आज़ादी हो कि आप फिल्म को बीच में रोककर और फिर उसे जहां से आप चाहें फिर से देख सकते हैं तो एक फिल्म का सम्मिलित अनुभव कहीं खो जाता है। और, यही वो बात है जो आपको उस आनंद से दूर कर देता है जो एक निर्देशक की नज़र को दूसरे से मिलते देखने में आता है।

मैं तो यही सलाह दूंगी कि आप चारों फिल्में एक साथ देखें और उसी क्रम में देखें जिनमें कि इन फिल्ममेकर्स ने इन्हें बनाया है। ये आपको इन एहसासों के बारे में बेहतर तरीके से कुछ सिखा पाएगा।

Adapted from English by Pankaj Shukla, consulting editor

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