‘मर्द को दर्द नहीं होता’ रिव्यू:  सिनेमा में डूबी ज़िन्दगी को एक मनमौजी, ख़ुशमिज़ाज सलाम!

‘मर्द को दर्द नहीं होता’ रिव्यू: सिनेमा में डूबी ज़िन्दगी को एक मनमौजी, ख़ुशमिज़ाज सलाम!

वासन बाला की यह मार्शल-आर्ट-ड्रैमेडी आैर बॉलीवुड कॉमेडी का मज़ेदार संगम है। ये सिनेमायी दुनिया से गहरी तरह से प्रभावित है, आैर साल की सबसे आत्मीय फ़िल्म है।

निर्देशक: वासन बाला

अभिनय: अभिमन्यु दसानी, राधिका मदन, गुलशन देवैय्या, महेश माँजरेकर

खुद ज़िन्दगी ही फ़िल्मी कहानी सी हो जाए तो सिनेमा भी अपनी कहानी हो जाता है। इसीलिए जब अस्सी आैर नब्बे की सिनेमायी दुनिया को ट्रिब्यूट देती 'मर्द को दर्द नहीं होता' साल की सबसे आत्मीय फ़िल्म लगती है, तो यह इसके लेखक-निर्देशक वासन बाला की खुद की ज़िन्दगी के बारे में भी बहुत कुछ बताता है। यह मार्शल-आर्ट-ड्रैमेडी आैर बॉलीवुड कॉमेडी का संगम एक ऐसे इक्कीस साल के लड़के के बारे में है, जिसे दर्द महसूस ही नहीं होता। फ़्लैशबैक में एक कमाल का अतिगंभीर दिखता डॉक्टर इस बीमारी का डॉक्टरी नाम भी बताता है  – 'कंजेनाइटल इन्सेन्सिटिवटी टू पेन' याने दर्द के प्रति जन्मजात संवेदनहीनता।

'मर्द को दर्द नहीं होता' मज़ाकिया वन-लाइनर्स, पुरानी फ़िल्मों के चतुर संदर्भों आैर कदम कदम पर उन्हें दिये ऐसे कलात्मक समर्पणों से भरी है, जिनमें से अधिकतर का मूल स्रोत तो मैं भी नहीं बता पाऊंगा। लेकिन मैं यकीन के साथ बता सकता हूँ कि इसमें दिखती आत्मीयता सच्ची है, आैर एक्शन ऐसा तगड़ा कि इस जॉनर की फ़िल्म के चाहनेवालों का जैसे बरसों का सपना पूरा हो गया हो। इसके ऊबर-कूल एक्शन को सबसे ख़ास बनाता है − गर आपको याद हो तो असमिया निर्देशक केनी बासुमतारी की 'लोकल कुंग-फ़ू' सीरीज़ की फ़िल्मों की तरह, यहाँ भी निर्देशक का अपने बचपन की बचकानी लगती कल्पनाअों को गुणवत्ता से ज़रा भी समझौता किये बिना सबके लिए सुलभ रूप में पेश कर देना।

कितने ही कहानीकार बड़े होकर फ़िल्म बनाने का ख़्वाब लिए जवान होते हैं। पर बाला बड़े कहाँ होना चाहते हैं! उन्होंने तो उल्टा अपने बचपन की कल्पनाअों को जैसे ज़िन्दा कर दिया है। स्वाभाविक है कि उनकी कहानी में अजेय अनब्रेकेबल हीरो है, चतुर दादाजी हैं, उलझी हुई नायिका है, आदर्श कराटे मास्टर है आैर साथ ही उसका दुष्ट जुड़वाँ भाई भी है। पर मज़ेदार बात ये कि ये सब किसी सुपरहीरो कहानियों के घटनास्थल गॉथम सिटी या मेट्रोपोलिस में नहीं हो रहा, बल्कि घट रहा है पश्चिमी मुम्बई के सबर्ब माटुंगा में जहाँ ऐसी कतई अजीबोगरीब घटनाअों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पर हमारा नायक सूर्या (अभिमन्यु दसानी) आैर खुद निर्देशक बाला इस सामान्य सी आैसत लगती दुनिया को अपनी ख़ास चमत्कारिक नज़रों से देखते आैर जीते हैं। इस ज़िन्दगी का आैसतपना उन्हें कल्पना के आकाश में आैर ऊंचा उड़ने की प्रेरणा देता है।

ऊपर से देखने पर 'मर्द को दर्द नहीं होता' एक जवान लड़के सूर्या की कहानी है जिसकी यह 'महानायकीय' बीमारी उसे ऐसा मसीहा बना देती है जो समाज में फिट नहीं होता। पर असल में यह हर उस हिन्दुस्तानी कलाकार की कहानी हो सकती है, जिसकी विलक्षण प्रतिभा आैर भिन्न व्यवहार उसे अपने ही समाज में एक अजूबा वस्तु बना देता है। अरे बीमारी तो बस एक बहाना है इस कहानी में जान की बाज़ी लगा देनेवाले रोमांटिक पलों तक पहुँचने का। वैसे तमाम कलाकारों के बारे में उनका समाज आैर आस-पास की दुनिया यही समझती आयी है कि उनके साथ कुछ दिक्कत है। इनका दूसरों से अलग होना जैसे कोई बीमारी हो। ये जीनियस दुनिया को, परिस्थितियों को अपने ख़ास चश्मे से देखते हैं। कथानकों आैर फ्रेम-रेट में घटती कभी किताबों आैर कभी फ़िल्मों की भाषा में। एक्शन आैर रोमांस की भाषा में। घोर इमोशन से भरी बदले आैर इंसाफ़ की कहानियों वाली भाषा में। पेड़ की डाली से किसी बिल्ली का कूदना भी इन्हें किसी आग के कुएं में बब्बर शेर की छलांग दिखायी देगा। वासन बाला की फ़िल्ममेकिंग में ऐसे आँखों से आेझल प्रतीकों की भरमार है।

उदाहरण के लिए − सूर्या को उसके पिता बाक़ी दुनिया से अलग विशेष निगरानी में रखते हैं। भले उसे दर्द ना होता हो, वे उसे बाकी 'सामान्य' इंसानों की तरह चोट लगने पर एक मशीनी 'आउच' बोलना सिखाते हैं। उसे देख उसकी बचपन की दोस्त सुपरी भी उसकी नकल करने की कोशिश करती है, पर असफ़ल रहती है क्योंकि भगवान का दिया ये ख़ास 'तोहफ़ा' उसके पास नहीं। सुपरी भी समाज के लिए 'आउटसाइडर' है। सूर्या के संवाद, जैसे 'हर माइंड ब्लोइंग कहानी के पीछे लाइफ़ के गलत फ़ैसले होते हैं', अतियों से भरे हुए हैं। वो चलते-फितरे भी अपने कराटे के दांव दिखाकर हमेशा दूसरों को चौंकाता रहता है, जैसे कैमरा हमेशा ही उस पर हो। एक पुरानी दुर्घटना के चलते चेन छीनाझपटी की एक पिद्दी सी घटना उसके लिए दुनिया को हिला देनेवाला अपराध बन जाती है। हर पुलिस स्टेशन में वो ऐसे घुसता है जैसे अब तमाम 'भ्रष्ट पुलिसवालों' का ख़ात्मा कर ही बाहर निकलेगा।

आैर जब गुंडों के झुंड के सामने नायिका सुपरी (राधिका मदन) की एक्शन-पैक्ड एंट्री होती है तो पीछे किशोर कुमार का मशहूर गीत 'नखरेवाली' बजता है। लगता है जैसे गाने की एक-एक बीट उसकी कदमताल को ध्यान में रख बुनी गयी है, भले ही सच इसका उल्टा हो। हीरो के आदर्श मास्टर मणि (हरफ़नमौला गुलशन देवैय्या) आैर उसके बदमाश जुड़वाँ भाई जिम्मी (फिर वही महफ़िल लूटनेवाले गुलशन देवैय्या) का 'क्लिशे दारूबाज़ कराटे मास्टर' आैर 'क्लिशे साइकॉटिक विलेन' कहकर परिचय करवाया जाता है। नायक सूर्या की नज़रों से देखने पर माटुंगा की साधारण सी घरेलू सोसाइटीज़ ऐसी नज़र आती हैं जैसे स्याह प्रकाश से भरे रहस्यमयी सुपरहीरो के छिपने के ठिकाने हों। सूर्या की सामान्य बातें भी किसी हीरो वाली अदा से भरी हैं, आैर हर संवाद जैसे किसी संगीतमय पंचलाइन पर खत्म होता है।

पर फिर हमारा हीरो ही आश्चर्य भी करता है कि भई ये विलेन के लग्गू-भग्गू हमला शुरु होते ही इतनी तेज़ी से हीरो तक कैसे पहुँच जाते हैं? मारामारी के बीच जब गुंडे लोग एक अंकल से बन्दूक मांगते हैं तो अंकल उनसे कैंसल्ड चैक आैर वेंडर रजिस्ट्रेशन दिखाने को कहते हैं! आैर जिम्मी तो किसी ट्विटर ट्रोल की तरह सूर्या को चिढ़ा-चिढ़ाकर परेशान कर देता है, क्योंकि सूर्या मसाला मेनस्ट्रीम सिनेमा को नापसंद करने का नाटक करता है पर मन ही मन उसे चाहता है। ये प्रसंग देखकर लगता है जैसे फ़िल्मकार का वयस्क रूप खुद ही अपने बचपन के वीएचएस कैसेट वाले नॉस्टेल्जिया में डूबे 'मैं' को चिढ़ा रहा हो, लेकिन उस नॉस्टेल्जिया का महत्व ज़रा भी खारिज़ किये बिना।

कभी फ़िल्म में ऐसे मौके भी आते हैं कि आपका मन होता है कि सूर्या अपना अतियों की परत चढ़ा चश्मा उतारकर इस बेरंग हक़ीक़त को देखे आैर अपनी कल्पनाअों के घोड़े को लगाम दे। लेकिन आप ये कभी नहीं चाहेंगे कि सूर्या सपने देखना छोड़ दे। आप कभी नहीं चाहेंगे कि सूर्या के मन में बज रहा साउंडट्रैक ख़ामोश हो जाए। असल में वो एक छोटा बच्चा है कैल्विन जैसा, जो अपने ज़िन्दा खिलौने हॉब्स की तलाश में है। निर्देशक वासन बाला की इस अकल्पनीय रचनात्मक छलाँग को समझने का एक तरीका ये भी हो सकता है कि इसे उनके जीवन के पिछले कुछ निराशाजनक वर्षों से जोड़कर पढ़ा जाए। अपने निर्देशकीय पदार्पण 'पैडलर्स' (2012) के साथ वो वासन बाला ही थे जिन्होंने अनुराग कश्यप खेमे से निकलकर सबसे पहले कान फ़िल्म फेस्टिवल के मंच पर नाम कमाया। लेकिन 'पैडलर्स' का दुखदायी इतिहास है कि वो कभी रिलीज़ ही नहीं हो पायी, आैर बाला चाहकर भी इस मामले में कुछ नहीं कर पाये। फिर 'बॉम्बे वैल्वेट' का सह-लेखन भी कोई सुखद यादें नहीं छोड़कर गया होगा।

आैर अब जैसे वासन ने अपनी ही ज़िन्दगी को हैरतअंगेज़ सिनेमा में बदल दिया है। 'मर्द को दर्द नहीं होता' दरअसल एक कलाकार का अपने बंधनों से आज़ाद होना है। यह खुद को अपने तमाम प्रभावों द्वारा अभिव्यक्त करती है, वो इसकी कमज़ोरी ना समझे जायें। दिलचस्प होगा यह कहना कि इस फ़ुर्तीले, ऊंचे कद के नायक सूर्या में निर्देशक बाला ने अपना ही फैंटेसी वर्ज़न रच दिया है परदे पर। आख़िरकार, वो हैं ऐसे… मर्द जिसे दर्द नहीं होता।

Adapted from English by Mihir Pandya

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