मनमर्ज़ियां रिव्यू : अनुपमा चोपड़ा

अनुराग को हिंदी सिनेमा में अनैतिकता का पुजारी समझा जाता है, इस बार उनकी यह हरदम गुस्से से भरी रहने वाली नज़र रिश्तों पर पड़ी है।
मनमर्ज़ियां रिव्यू : अनुपमा चोपड़ा
इश्क़, जैसा कि अक्सर कहते हैं, अपने भीतर तमाम तरह की रोशनियां समेटे होता है। मनमर्ज़ियां में निर्देशक अनुराग कश्यप और इसकी लेखक-क्रिएटिव प्रोड्यूसर कनिका ढिल्लों हमें इश्क़ की इन रोशनियों की गहराइयों तक ले जाते हैं। हमें मोहब्बत के तमाम रंग देखने को मिलते हैं – विकी और रूमी का तूफ़ानी प्यार, एक ऐसा जोड़ा जिसकी रगों में दौड़ने वाले जोश पर इनका खुद कोई काबू नहीं है। काबू इनका अपने जज़्बात और जीभ पर भी नहीं हैं। इनके प्यार में अलग ही आवेग है, कुछ कुछ जंगली घोड़े जैसा, जिसे पता ही नहीं होता कि वह अपने आसपास अनजाने में कितनी चीज़ों को तहस-नहस कर रहा है। फिर हमें इसका विस्तार दिखता है उस प्यार में जो रॉबी को रूमी से है- ये ऐसा मज़बूत एहसास है कि वह अपनी पत्नी के दूसरे पुरुष को प्यार करने की पीड़ा भी खुद में दबाए रखता है। और, रॉबी और रूमी का ऐसा रिश्ता सामने आता है जो है तो धीमा लेकिन भीतर ही भीतर उबल रहा है और जिसमें एक आपसी समझ एक दूसरे के टूटे दिल को समझने से आती है।

अनुराग को हिंदी सिनेमा में अनैतिकता का पुजारी समझा जाता है, इस बार उनकी यह हरदम गुस्से से भरी रहने वाली नज़र रिश्तों पर पड़ी है। इससे ये तो तय हो ही जाता है कि ये वो हिंदी सिनेमा नहीं है जिसमें दो दिल मिलते हैं और तयशुदा अड़चनों को पार करने की कोशिश करते हैं। रूमी और विकी से जब हम मिलते हैं तो वह पहले से जवानी के जोश में हैं। रूमी जिद्दी है, बातें बनाना जानती  हैं और जैसा कि रॉबी कहता है, एक डायन है। विकी शहर का आवारा छोकरा है। संधू दा पुत्तर, जिसकी जिंदगी का ऐक्सेलरेटर रूमी को लेकर उसकी चाहत है। परदे पर विकी पहली बार जब दिखता है तो वो रूमी के कमरे में पहुंचने के लिए मोहल्ले की छतें छलांग रहा होता है। हमें ये भी बताया जाता है कि अमृतसर में सिर्फ दो ही ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने बाल डाई किए हैं – विकी के नीले, रूमी के लाल। दोनों एक दूसरे से बेफिक्री में मिलते हैं और दोनों एक दूसरे के भूखे हैं। उनके प्यार में एक अलग ही धमक है, इसमें विध्वंस भी है और इसकी ज़िंदादिली भी उतनी ही शानदार है।  


मनमर्ज़ियां का इंटरवल के पहले का हिस्सा संपूर्ण चमत्कार है। अनुराग और कनिका एक संपूर्ण सिद्ध टाइप का संसार रचते हैं जिसमें धड़कन आती है अमित त्रिवेदी के जानदार संगीत से। इनमें से मेरे पसंदीदा हैं 'ध्यानचंद' और 'दरिया'। गाने कहानी की बुनावट में शामिल हैं। इनके सुरों से एहसासों को उभार मिलता है और ये हमें ये भी याद दिलाते रहते हैं कि भले ये ज़िंदगी सूरज सी रौशन हो पर हैं हम अब भी अनुराग कश्यप के संसार में। अनुराग इसके लिए दो जुड़वा बहनों को अलंकार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं जो हर घटना की मूक गवाह बनी परदे पर दिखती हैं।लेकिन, फिल्म सजावट से नहीं अदाकारी की बुनावट से मजबूत होती है और यहां ये काम किया है तापसी पन्नू और विकी कौशल ने। रूमी मोहक है, मादक है और मारक भी है। अपने लहराते लाल रंग के बालों के साथ रूमी ऐसी लड़की बन जाती है जो हमेशा किसी न किसी का सामना करने को तैयार है। और विकी, अदाकार के रूप में भी और किरदार के रूप में भी, उसके हर सुर की ताल बन जाता है। खासतौर से वह दृश्य याद रह जाता है जहां रूमी उसे ज़िंदगी का मतलब समझाना चाह रही है। वह कहता कुछ नहीं बस उसकी आंखें उसके भीतर के भ्रम, भय और भूचाल को बयां करती रहती हैं। यूं लगता है कि आपने उसकी आंखों के जरिए उसकी आत्मा में झांक लिया है।

लेकिन, जादू सी जीती इस कहानी को इंटरवल के बाद झटका लगता है। रॉबी का किरदार शांत और शहीद टाइप का बनाया गया है। वह परिपक्व है और रूमी और विकी के पागलपन पर चढ़ी समझदारी की पन्नी बन जाता है। उसका किरदार बिना किसी तामझाम वाला ऐसा गूढ़ किरदार बन जाता है जिसकी परंपरा हमें वो सात दिन के डॉ. आनंद, हम दिल दे चुके सनम के वनराज और कुछ हद तक कभी कभी के विजय खन्ना में मिलती है। ये इतना समझदार इंसान है कि उसकी बीवी उससे पूछती है – तुम इंसान के रूप में देवता हो या देवता के रूप में इंसान। रूमी उसे रामजी टाइप्स भी कहकर बुलाती है। दोनों का रिश्ता ठहराव का है और समस्या ये है कि फिल्म भी यहां आकर ठहर सी जाती है। अभिषेक बच्चन को दो साल बाद फिल्मी परदे पर देखना अच्छा लगता है। उनकी आंखों में समझदारी वाली वो थकान भी दिखती है जो रॉबी के किरदार पर बिल्कुल फिट बैठती है। सालों तक मैं अनुराग की फिल्में देखकर जब भी बाहर निकलती हूं तो मेरे भीतर झुंझलाहट रहती है कि आखिर ये इंसान हर बार इतना आसक्त क्यों हो जाता है। मनमर्ज़ियां भी अलग नहीं है। अनुराग इतने ज्यादा प्रतिभावान हैं लेकिन उनको ये पता नहीं होता कि रुकना कहां हैं।

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