अनुराग को हिंदी सिनेमा में अनैतिकता का पुजारी समझा जाता है, इस बार उनकी यह हरदम गुस्से से भरी रहने वाली नज़र रिश्तों पर पड़ी है। इससे ये तो तय हो ही जाता है कि ये वो हिंदी सिनेमा नहीं है जिसमें दो दिल मिलते हैं और तयशुदा अड़चनों को पार करने की कोशिश करते हैं। रूमी और विकी से जब हम मिलते हैं तो वह पहले से जवानी के जोश में हैं। रूमी जिद्दी है, बातें बनाना जानती हैं और जैसा कि रॉबी कहता है, एक डायन है। विकी शहर का आवारा छोकरा है। संधू दा पुत्तर, जिसकी जिंदगी का ऐक्सेलरेटर रूमी को लेकर उसकी चाहत है। परदे पर विकी पहली बार जब दिखता है तो वो रूमी के कमरे में पहुंचने के लिए मोहल्ले की छतें छलांग रहा होता है। हमें ये भी बताया जाता है कि अमृतसर में सिर्फ दो ही ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने बाल डाई किए हैं – विकी के नीले, रूमी के लाल। दोनों एक दूसरे से बेफिक्री में मिलते हैं और दोनों एक दूसरे के भूखे हैं। उनके प्यार में एक अलग ही धमक है, इसमें विध्वंस भी है और इसकी ज़िंदादिली भी उतनी ही शानदार है।
लेकिन, जादू सी जीती इस कहानी को इंटरवल के बाद झटका लगता है। रॉबी का किरदार शांत और शहीद टाइप का बनाया गया है। वह परिपक्व है और रूमी और विकी के पागलपन पर चढ़ी समझदारी की पन्नी बन जाता है। उसका किरदार बिना किसी तामझाम वाला ऐसा गूढ़ किरदार बन जाता है जिसकी परंपरा हमें वो सात दिन के डॉ. आनंद, हम दिल दे चुके सनम के वनराज और कुछ हद तक कभी कभी के विजय खन्ना में मिलती है। ये इतना समझदार इंसान है कि उसकी बीवी उससे पूछती है – तुम इंसान के रूप में देवता हो या देवता के रूप में इंसान। रूमी उसे रामजी टाइप्स भी कहकर बुलाती है। दोनों का रिश्ता ठहराव का है और समस्या ये है कि फिल्म भी यहां आकर ठहर सी जाती है। अभिषेक बच्चन को दो साल बाद फिल्मी परदे पर देखना अच्छा लगता है। उनकी आंखों में समझदारी वाली वो थकान भी दिखती है जो रॉबी के किरदार पर बिल्कुल फिट बैठती है। सालों तक मैं अनुराग की फिल्में देखकर जब भी बाहर निकलती हूं तो मेरे भीतर झुंझलाहट रहती है कि आखिर ये इंसान हर बार इतना आसक्त क्यों हो जाता है। मनमर्ज़ियां भी अलग नहीं है। अनुराग इतने ज्यादा प्रतिभावान हैं लेकिन उनको ये पता नहीं होता कि रुकना कहां हैं।