‘मणिकर्णिका: दि क्वीन ऑफ़ झांसी’ रिव्यू: कंगना के निर्भीक अभिनय से रची राष्ट्रवादी फ़िल्म

जानबूझकर सिनेमा के लोकप्रिय मुहावरे में एक महागाथा रचने की कोशिश है मणिकर्णिका
‘मणिकर्णिका: दि क्वीन ऑफ़ झांसी’ रिव्यू: कंगना के निर्भीक अभिनय से रची राष्ट्रवादी फ़िल्म

निर्देशक: क्रिश जगलरमुदी, कंगना रनौत

अभिनय: कंगना रनौत, डैनी डैंजोंग्पा, अंकिता लोखंडे, अतुल कुलकर्णी

सवाल ये है कि एक किंवदंती बन चुकी कहानी को आप फ़िल्म में कैसे बदलेंगे? मणिकर्णिका या कहें झांसी की रानी आज हमारी लोक स्मृति का अभिन्न हिस्सा है। इस योद्धा रानी ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़ अपनी सेना सहित मोर्चा लिया। सन् 1858 में जब समरांगण के मध्य वे वीरगति को प्राप्त हुईं, उनकी उमर बस 29 बरस की थी। उनकी गाथा हमारी साझा चेतना का हिस्सा है। पीठ पर दुधमुंहे बच्चे को बांधे इस योद्धा स्त्री की छवि को हमारे सिनेमा, टेलीविजन, रंगमंच और कविताओं ने अमर कर दिया है। यहाँ तक कि भारत में रिलीज़ होनेवाली पहली टेक्नीकलर फ़िल्म भी सोहराब मोदी की 'झांसी की रानी' ही थी, जिसका पहला प्रदर्शन आज से 66 साल पहले सन् 1953 की जनवरी में हुआ था। और भले ही हमें सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता पूरी ना याद हो, हम में से प्रत्येक उस अमर पंक्ति से ज़रूर परिचित होगा, 'खूब लड़ी मर्दानी वो तो, झांसी वाली रानी थी'।

इस गाथा को स्क्रीन पर ज़िन्दा करने के पहली शर्त तो यही है कि इस भूमिका के लिए ऐसा अभिनेता चुना जाए, जो इस अदम्य शौर्य से भरी भूमिका को निभाने में सक्षम हो। इस मोर्चे पर आप कह सकते हैं कि 'मणिकर्णिका: दि क्वीन ऑफ़ झांसी' पूरी तरह खरी उतरी है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की आइकॉनिक भूमिका में कंगना रनौत साक्षात धधकती आग हैं। उनकी तनी हुई रीढ़, भेदक आँखें देखकर लगता है कि जैसे कोई अदृश्य अदम्य शक्तिपुंज उनके भीतर प्रवेश कर गया है। वे घुड़सवारी करती हैं, तलवारबाज़ी करती हैं, हाथी के मस्तक की सवारी करती हैं और ये सब अत्यंत विश्वसनीय तरीके से अंजाम देती हैं। जब वो कैमरे से सीधे नज़रें मिलाकर घोषणा करती हैं कि वो इस देश के लिए जान भी दे सकती हैं, तो आप युद्ध के मैदान में उनके साथ खड़े होना चाहते हैं। उनका पराक्रम विस्मयकारी है। साथ ही नीना लुल्ला द्वारा रचे गए आभूषण और साड़ियाँ भी मनमोहक हैं – यह ऐसी रानी है जो युद्ध के मोर्चे पर भी मोतियों से सुसज्जित होकर जाती है। और ऐसी दूसरी नायिका ढूंढे से नहीं मिलेगी जो इसे ज़रा भी बचकाना लगे बिना निभा ले जाये।

लेकिन इस किरदार में उतार-चढ़ाव नहीं हैं। किरदार के पहले ही परिचय सीन में वो अकेली शेर को पछाड़कर उसकी सवारी करती दिखायी गयी हैं। संजय लीला भंसाली की फ़िल्मों की स्टाइल में यहाँ एक लंबा पल्लू नायिका के पीछे उड़ता दिखायी देता है। पहले ही फ्रेम से यह स्पष्ट कर दिया गया है कि वो असंभव शक्तियों की धनी नायिका है।  कहानी आगे बढ़ती है और हमें ये भी जानने को मिलता है कि वो पुस्तक प्रेमी, गज़ब की राजनैतिक रणनीतिकार, ममतामयी माँ और स्नेहमयी पत्नी भी हैं। जब उनकी सास उन्हें सीख देती हैं, 'ध्यान सिर्फ महल और रसोई क्रिया में रख' तो ये सुनकर हंसने का मन होता है। क्योंकि हमें पता है कि ऐसा नहीं होने वाला।

रानी लक्ष्मीबाई गज़ब का विस्मयकारी किरदार हैं और कंगना ने इसे बख़ूबी निभाया है, फ़िल्म फिर भी लड़खड़ाती है क्योंकि हर तरफ़ सिर्फ़ कंगना ही कंगना हैं। तकरीबन हर सीन बस एक ही उद्देश्य से रचा गया है कि वो रानी की वीरता, उनके चमत्कार या उनकी नेतृत्व क्षमता को रेखांकित कर सके। फ़िल्म शुरुआत में ही साफ़ करती है कि यहाँ ऐतिहासिक प्रामाणिकता का दावा नहीं है और इसे रचने में सिनेमाई आज़ादी ली गयी है। पर फ़िल्म की चाहत है लोक किंवदंती को ज़िन्दा करना। तो यहाँ रानी अल्टीमेट फेमिनिस्ट आइकन हैं, जो अन्य स्त्रियों को तलवार उठाकर रणक्षेत्र में कूदने की प्रेरणा देती हैं। जब उनके पति की मृत्यु होती है तो वे विधवा जीवन के अनुष्ठान को निभाने से इनकार कर देती हैं, क्योंकि देश को उनकी ज़रूरत है। एक जगह वे दर्जनों अंग्रेजों को मौत के घाट उतारने के बाद माँ काली की मूरत के आगे जा खड़ी होती हैं, इसका साफ़ इशारा करते हुए की वे साक्षात माँ काली का ज़िन्दा अवतार हैं।

इससे पहले 'बाहुबली' लिख चुके विजयेंद्र प्रसाद की कहानी और पटकथा अन्य किरदारों को उभरने का मौका ही नहीं देती। डैनी डैंजोंग्पा, कुलभूषण खरबंदा, अतुल कुलकर्णी, मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब और जिस्सू सेनगुप्ता जैसे बेहतरीन अभिनेता भी यहाँ बस रानी के किरदार को उभारने के उपकरण भर हैं। टेलीविज़न स्टार अंकिता लोखंडे का यह फ़िल्म डेब्यू है, लेकिन उनके करने के लिए यहाँ ज़्यादा कुछ नहीं। अंग्रेज़ भी हमेशा की तरह या तो बचकानी हिंदी बोलनेवाले मूरख किरदार हैं, या क्रूर अन्यायी। एक सीन में रानी को नष्ट करने भेजा गया खलनायक जनरल ह्यूज रोज़ एक तरुण लड़की को सिर्फ़ इसलिए फांसी पर लटका देता है कि उसका नाम भी लक्ष्मी है।

कहानी को किसी भी तरह से यथार्थवादी या जटिलताओं को शामिल करते हुए नहीं सुनाया गया है। यह जानबूझकर सिनेमा के लोकप्रिय मुहावरे में एक महागाथा रचने की कोशिश है। प्रसून जोशी के संवाद राष्ट्रवादी भावनाओं से ओतप्रोत हैं। फ़िल्म की घटनाएँ भले उन्नीसवीं सदी के मध्य में घटित हो रही हों, संवाद बिल्कुल आज के वातावरण को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं। इसीलिए जब रानी कहती हैं, 'मैं तुम्हारी अंतरात्मा की आवाज़ हूँ' तो वे हमारे भीतर के राष्ट्रभक्त को जगा रही हैं। हालांकि यह इतना बारीकी से नहीं किया गया है, लेकिन काम करता है। कुछ दृश्यों में गहरे असर करनेवाली इमोशनल ताक़त है। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत भी इसके असर को दुगुना करता है, ख़ासकर 'भारत' शीर्षक गीत।

फ़िल्म इरादों में 'बाहुबली' की और खूबसूरती में 'पद्मावत' की बराबरी तो नहीं कर सकती, लेकिन भव्यता की यहाँ कोई कमी नहीं। मर्दों के शरीर पर भी आभूषणों की कोई कमी नहीं दिखती और किले-प्रासाद प्रभावशाली हैं। लेकिन त्रुटिपूर्ण सीजीआई वर्क यहाँ दिखाई देता है, ख़ासकर युद्ध दृश्यों में।

लेकिन दो घंटे और अट्ठाईस मिनट लम्बी मणिकर्णिका ज़रूरत से ज़्यादा लम्बी है। इसका निर्देशन दो लोगों के हाथ में रहा और साक्षात्कारों में कंगना रनौत ने दावा किया है कि फ़िल्म का 70 प्रतिशत काम उनका ही किया हुआ है, अगर ऐसा है तो वे एक प्रभावशाली किस्सागो तो ज़रूर हैं लेकिन उनके भीतर का अभिनेता निर्देशक को पीछे कर देता है। अभिनेता कहानी से भी बड़ा बन जाता है।

लेकिन तमाम कमियों के बावजूद 'मणिकर्णिका' अभिनेता कंगना रनौत की आज़ाद महत्वाकांक्षाओं का ज़िन्दा सबूत है। मैं उनका अगला काम देखने के लिए इन्तज़ार करूंगी।

मैं इसे तीन स्टार देना चाहूँगी।  

(Adapted from English by Mihir Pandya)

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