फन्ने खां – मूवी रिव्यू

बेमज़े की इस फिल्म में अनिल कपूर की दिल को छू लेने वाली अदाकारी ही है जो सिनेमाहॉल में दर्शकों को रोके रखती है।
फन्ने खां – मूवी रिव्यू

मुख्य भूमिकाएं निभाते हुए 38 साल हो गए अनिल कपूर को, लोग उन्हें पसंद करते है और वक़्त के साथ पक्की हुई उनकी प्रतिष्ठा आपको उनका ख्याल रखने को भी कहती है। उनके आसपास क्या हो रहा, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। रेस 3 जैसी बड़ी दुर्घटना से वह हाल ही में बचे हैं। फन्ने खां में ये एके सिद्धांत काम करता है। जब फिल्म घिसट घिसट कर आगे बढ़ती है, तब भी कपूर साब (मैं उन्हें ऐसे ही बुलाती हूं) अपनी पूरी गरिमा के साथ पेश आते हैं।

फन्ने खां, ऑस्कर के लिए नामित हुई बेल्जियन फिल्म एवरीबडी इज फेमस की ऑफिशियल रीमेक है। मूल फिल्म एक उपेक्षित इंसान की कहानी में व्यंग्य के साथ अच्छा गठबंधन है। मन को भाने वाली कॉमेडी और इसकी संवेदनशीलता को धार मिली थी शोहरत की भूख और इसके लिए कोई इंसान कहां तक जा सकता है, इस पर की गई टिप्पणी से। पिता अपनी उस बेटी का अपहरण कर लेता है जो एक लोकप्रिय गायिका है और बेटी भी अपने भीतर कहीं कुछ खो देती है। फिल्म का हिंदी संस्करण वहां तक जाने का जोखिम नहीं उठाना चाहता।

इसके बजाय हमें यहां एक सीधा सपाट ड्रामा मिलता है। ये कहानी है एक नाकाम ऑर्केस्ट्रा सिंगर की जो अपनी बेटी को कामयाब बनाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। इस बेटी का नाम भी उसने बड़ी उम्मीदों पर रखा है – लता। वह अपनी बेटी को स्टारडम तक ले जाने के लिए एक तिकड़म लड़ाता है। दंगल की तरह ही यहां भी एक पिता अपने सपनों को अपनी बेटियों के जरिए जीना चाहता है। और फिर से, ये कहानी किसी समस्या की तरह नहीं बताई जाती बल्कि इसे भी शान बख्शी जाती है।

कहानी थोड़ा बनावटी लगती है लेकिन मुद्दा ये नहीं है। मेरे हिसाब से फिल्म की सबसे बड़ी बाधा है इसका लय में न होना। अपनी पहली फिल्म बना रहे अतुल मांजरेकर हक़ीक़त को भी बहुत सादा रखते हैं। फन्ने और उनका परिवार एक कॉलोनी में रहता है। फैक्ट्री बंद हो जाती है तो वह टैक्सी चलाने लगता है। ये लोग ऐसी बनावटी गरीबी में रहते हैं कि यहां परफॉर्मेंस के लिए एक सितारों जड़ी ड्रेस भी ईएमआई पर खरीदी जाती है। एक मौके पर तो फन्ने की बीवी, दिव्या दत्ता ने ये किरदार बखूबी निभाया है, पूछ भी लेती है – स्टार बनाना ज़रूरी है क्या?

इस बीच कहानी की स्टार – बेबी सिंह (ऐश्वर्या राय बच्चन) एक समानांतर दुनिया में रहती है। मूल फिल्म में ये किरदार एक साधारण सी सिंगर का था। यहां ऐश्वर्या को किसी देवी की तरफ पेश किया जाता है। बहुत ही करीने से रंगे गए उनके लाल शेड्स वाले बाल इस किरदार पर फबते भी खूब हैं लेकिन उनका बनावटीपन फिल्म को कमज़ोर करता है। उनका मैनजर जो पूरे खेल का सूत्रधार होता है, एक कुशल संचालक के रूप में सामने आता है। और, ये सब कुछ इतना घिसा पिटा सा है कि इसमें कोई किरदार ढंग से उभर नहीं पाता। और, ये अड़चन राजकुमार राव के सामने भी आती है जो अधीर के किरदार में है, किडनैपिंग में फन्ने खां का साथी। राजकुमार पूरी बहादुरी से एक कमज़ोर रोल में दम डालने की कोशिश करते हैं लेकिन एक कश्मीरी के किरदार में उनको कास्ट करना ही गलती है। नवोदित कलाकार पीहू फन्ने खां की परेशान हाल बेटी के किरदार में है। उनको अपनी अदाकारी का कमाल दिखाने का मौका एक बहुत ही इमोशनल क्लाइमेक्स में मिलता है जहां वह बैले, तेरा जैसा तू है, गाती हैं। मोनाली ठाकुर के गाए इस गीत पर अभिनय से पहले तक ये समझ ही नहीं आता कि आखिर लता अपने इतना प्यार करने वाले पिता को लेकर गुस्से में क्यों रहती है?

एक म्यूजिक कंपनी इस फिल्म की प्रोड्यूसर है और इसके बावजूद फिल्म का एक भी गाना फिल्म देखकर निकलने के बाद याद नहीं रहता, फिर चाहे वो मोहब्बत हो, बदन पे सितारे हो या फिर हल्का हल्का सुरूर। एक ऐसी फिल्म में जिसकी आत्मा ही संगीत हो, संगीतकार अमित त्रिवेदी का संगीत औसत से भी निचले स्तर का है। त्रिवेदी ने इससे पहले एक और कामयाबी के पीछे भागती टीन एजर सिंगर की कहानी – सीक्रेट सुपरस्टार – में इससे कहीं अच्छा संगीत दिया था।

लेकिन, इतनी सारे स्पीडब्रेकर्स के बाद भी फन्ने खां के कुछ दृश्य आपको भावुक कर देंगे। फिल्म में बार बार ऐसे प्रवचनों का तड़का लगाया गया है जो हमें सपनों की ताक़त को, अंदर की सुंदरता को, हुनर की शक्ति को और खुद के साथ ईमानदार रहने की ताक़त को मानने की गुहार लगाते हैं। इनमें से कुछ समझ भी आते हैं और कुछ नहीं।

फिल्म देखने के बाद मेरे जेहन में वो तस्वीर अटकी रह गई जिसमें लता को ऑडीशन का बुलावा आने पर फन्ने खां अपने आंसू पोछ रहा है और फिर भी सामान्य दिखने की कोशिश करता है। बेमज़े की इस फिल्म में अनिल कपूर की दिल को छू लेने वाली ये अदाकारी ही है जो सिनेमाहॉल में दर्शकों को रोके रखती है। मेरी तरफ से फिल्म को ढाई स्टार्स।

Adapted from English by Pankaj Shukla, Consulting Editor 

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