पटाखा मूवी रिव्यू

राजस्थान के एक गांव की दो दबंग बहनों की कहानी कहती विशाल भारद्वाज की सान्या मल्होत्रा और राधिका मदान स्टारर फिल्म एक छोटी सी कहानी को इतना लंबा खींचने की कोशिश है कि ये टूट जाती है।
पटाखा मूवी रिव्यू

निर्देशक: विशाल भारद्वाज

कलाकार: सान्या मल्होत्रा, राधिका मदान, सुनील ग्रोवर, नमित दास

विशाल भारद्वाज के सिनेमा की जिस चीज़ से मुझे सबसे ज़्यादा प्यार है वो ये कि वह दोषपूर्ण किरदारों के चैंपियन हैं। बॉलीवुड की कहानियों में परफेक्ट से, सुंदर से दिखने दिखने वाले किरदारों, जिनका गुज़र बसर शान से होता है, उनमें विशाल की कोई दिलचस्पी नहीं। उनका सिनेमा ऐसी अतिवादी शख्सीयतों से रफ्तार पाता है जो डर और शंका में जीते हैं। ज़रा फिल्म मक़बूल के मक़बूल और निम्मी के बारे में सोचिए या फिर 7 ख़ून माफ की सुसाना एन्ना मैरी जोहानेस या फिर हैदर की ग़ज़ाला या कि रंगून की जूलिया। बहुत की कायदे से ऐंठे गए किरदारों के इस मंडप में विशाल ने इस  बार चंपा कुमारी यानी कि बड़की और गेंदा कुमारी यानी कि छुटकी का इज़ाफा किया है, राजस्थान की ये दो बहनें लगातार एक दूसरे की जान लेने की कोशिश में लगी रहती हैं।

दूसरी चीजों के अलावा फिल्म में सबसे पहले हमें ये बच्चियां एक दूसरे को गालियां देती दिखती हैं, एक सेर है तो दूसरी सवा सेर। मिनटों के भीतर दोनों बड़ी हो जाती हैं और शुरू हो जाती है एक दूसरे पर घूसों की बरसात। झगड़े की शुरूआत कुछ भी हो सकती है – बीड़ी, ब्वॉयफ्रेंड्स, बदले इरादे, कुछ भी इनके बीच युद्ध शुरू करा सकता है। बड़की की दिली ख्वाहिश है कि वह एक डेयरी खोले जबकि छुटकी की तमन्ना है टीचर बनकर एक स्कूल चलाने की। बेचारा बापू असहाय है, वह दोनों के साथ घिसटने की कोशिश करता रहता है जबकि इलाके का नारद मुनि डिप्पर अपनी पूरी कोशिश में रहता है कि ये युद्ध जारी रहे। क्योंकि, उसके हिसाब से इसमें मज़ा बहुत आता है।      

शायद उसको आता भी हो लेकिन दुख इस बात का है कि हमें नहीं आता। चरन सिंह पथिक की लघु कथा, दो बहनें, पर आधारित है पटाखा। अपने कलाकारों और तकनीशियनों की मदद से विशाल एक रंग बिरंगा संसार बुनते हैं। सान्या मल्होत्रा और राधिका मदान, जिनकी कि ये पहली फिल्म है, बड़की और छुटकी बनने के लिए जी-जान से मेहनत करती हैं। दोनों अच्छी कलाकार हैं और बहुत ही मुश्किल बोली वाले संवाद भी कर ले जाती हैं लेकिन ये किरदार शारीरिक रूप से भी बहुत मेहनत मांगते हैं – दोनों बहनें लगातार एक दूसरे को पीट रही हैं, कीचड़ में लथपथ हो रही हैं और चिल्ला रही हैं। काले पड़ गए दांत और देह में दबंगई डालकर दोनों वाकई में अपने किरदारों में ढल भी जाती हैं।

लेकिन इनका ये चौंका देने वाला बदलाव भी पटाखा के लिए बहुत काम का साबित नहीं होता क्योंकि दोनों बहनें शुरू से आख़िर तक एक जैसी ही बनी रहती हैं। तारीफ करनी होगी विशाल की उनके इस साहस के लिए कि किसी को पसंद न आने वाले किरदारों, बड़की और छुटकी पर उन्होंने पूरी फिल्म बनाने का फैसला कर डाला। दोनों निष्ठुर हैं, गुस्सैल हैं, जिद्दी हैं और एक दूसरे के लिए डाह से भरी हुई हैं। हिंदी सिनेमा में ऐसे महिला किरदार कम ही दिखते हैं। दिक्कत यहां ये है कि किरदारों को रोचक बनाने वाली जीवन की छोटी छोटी घटनाएं यहां गायब है। घंटे भर बाद ही आपको लगने लगता है कि आप किसी कमरे में दो रुदाली टाइप चुड़ैलों के बीच फंस गए हैं। और, ये बहुत थका देने वाला है।

बेचारे बापू के तौर पर विजय राज़ और घटिया तबियत वाले डिप्पर बने सुनील ग्रोवर बहुत कोशिश करते हैं लेकिन कोशिश करने के लिए उनके पास मैदान ही नहीं है। 7 ख़ून माफ़ भी एक लघुकथा पर ही बनी फिल्म थी, इसी की तरह पटाखा भी एक छोटी सी कहानी को इतना लंबा खींचने की कोशिश है कि ये टूट जाती है। डिप्पर समझाता है कि दोनों बहनें भारत और पाकिस्तान की तरह है, एक ही मां से जन्मी फिर भी हमेशा एक दूसरे से भिड़ने को तैयार। लेकिन, ये उपमा फिल्म के कमज़ोर कथानक पर बहुत भारी बैठती है। गुलज़ार के लिखे गानों पर विशाल का संगीत फिल्म के धींगामस्ती भरे जोशीले वातावरण को ढंग से साधता है – मुझे खासतौर से'बलमा' और 'गली गली' ने खूब आनंद दिया। फिल्म में हंसाने वाली भी कुछ लाइनें हैं लेकिन ज्यादातर दृश्यों में पटाखा ऐसी शोर मचाती ट्रेन की तरह आगे बढ़ती है जो इंटरवल के बाद पटरी से उतर जाती है। एक बार दोनों बहनों की शादी हो जाती है तो कहानी बस साजिशों और शोर में गुम होकर रह जाती है। कथानक खुद को बार बार दोहरता है और ऐसा लगता है कि इसे ज़बर्दस्ती आगे ले जाया जा रहा है।

ये बिना किसी करिश्मे या कलाकारी का कोलाहल है।

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