‘ज़ीरो’ रिव्यू: यकीन से परे कहानी, जिसकी नाकामयाबी उदास करती है

शाहरुख, अनुष्का, कैटरीना स्टारर ‘ज़ीरो’ में निर्देशक आनंद एल राय ने दिलचस्प किरदार रचे हैं, लेकिन उन्हें बाँधने वाला पटकथा का धागा कहीं खो गया
‘ज़ीरो’ रिव्यू: यकीन से परे कहानी, जिसकी नाकामयाबी उदास करती है

मैं अभी तक ज़ीरो को ठीक से समझने की कोशिश ही कर रही हूँ। ये कहानी शुरु तो होती है मेरठ से और पहुँच जाती है सीधा मंगल तक। पर ये सब इतना अजीबोगरीब और विश्वसनीय है कि यकीन करना मुश्किल है। इतना बेसिरपैर का कि मुझे लगता रहा, शायद पटकथा के कुछ पन्ने फ़िल्म निर्माण के वक़्त इधर-उधर हो गए हैं, या फिर एडिटिंग में गलती से ज़रूरी सीन ही तो नहीं काट दिये गए? या कहीं मैं ही तो समझने में कुछ भूल नहीं कर रही। इतने सारे कमाल के प्रतिभाशाली लोग इस फ़िल्म के पीछे हैं। निर्देशक आनंद एल राय और लेखक हिमांशु शर्मा, और खुद शाहरुख ख़ान जैसा सबसे बड़ा सितारा। पर फ़िल्म देखने के बाद मेरी हालत जाने भी दो यारों के क्लाइमैक्स सीन वाले राजा धृतराष्ट्र जैसी हो गयी है। मेरे पास कहने को बस यही बचा है, "ये सब क्या हो रहा है?"

कहानी की शुरुआत धमाकेदार है। चार फुट दो इंच का हमारा हीरो बउआ सिंह बड़बोला भी है और प्यारा भी। शाहरुख ख़ान ने यहाँ कमाल किया है। अपने करियर की सबसे चुनौतीपूर्ण भूमिका को उन्होंने पूरी तरह अपना बना लिया है। बउआ बस देखने में ही छोटा है। उसमें गज़ब का अभिमान है और उसकी मुँहफट हाज़िरजवाबी दूसरों से बढ़कर है। एक सीन में वो लेडीज़ बाथरूम में बैठा भीतर से ही आवाज़ लगाता है, 'आ जाओ आंटी मैं तो बच्चा हूँ।' बउआ ना खुद को दूसरों से ज़रा भी कम मानता है, आैर ना किसी को अपने लिए सॉरी फ़ील करने देता है। सबसे ख़ास बात, बउआ के सपने 70 एमएम साइज़ के हैं। जब वो प्यार में पड़ता है तो बोलता भी है, 'सपने साइज़ देखकर नहीं आते। इसलिए इस छोटे से आदमी ने आपका देख लिया।'

पर यहीं से फ़िल्म की कहानी पटरी से उतरने लगती है। अब ये बात सच है कि सिनेमा में कुछ भी होना संभव है और शाहरुख ख़ान ने बीते पच्चीस सालों में हमें ये यकीन दिलाया है कि अगर वो चाहें तो दुनिया की कोई भी लड़की उनके प्यार में पड़ सकती है। लेकिन कहना होगा, निर्देशक आनंद एल राय और हिमांशु शर्मा की जोड़ी ने बउआ की आफ़िया के साथ जोड़ी बनाकर सच में अति कर दी। यहाँ एक ओर आफ़िया जैसी दुनियाभर में घूमी ऐसी मशहूर वैज्ञानिक है जिसने मंगल पर पानी खोज निकाला है। वो एक जगह बउआ को ये बोलती भी है कि 'मैं तुम्हारी लीग से बहुत बाहर हूँ।' दूसरी ओर हमारा अनपढ़, गंवार बउआ। फिर भी वो बउआ के प्यार में पड़ जाती है, बस ये बोलकर कि 'मुझे गंवार पसन्द हैं।' आफ़िया सेरेब्रल पॉल्सी की मरीज़ है और व्हीलचेयर से उठ नहीं पाती। ऐसे में बउआ और उसकी लम्बाई बराबरी पर आ जाती है। लेकिन उसे बउआ के बराबर दिखाकर कहीं फ़िल्म ये तो नहीं कह रही कि एक शारीरिक भिन्नता ने आफ़िया की बाकी सारी उपलब्धियों को अनदेखा कर दिया?

ऐसा लगता है कि आनंद और हिमांशु ज़ीरो के साथ एक ऐसी परियों की कहानी रचने की कोशिश कर रहे थे जो अधूरेपन के पीछे की असल खूबसूरती से हमें रूबरू करवा पाये। ऐसी परिकथा, जिसमें दो शरीर से अधूरे इंसान एक-दूसरे का साथ पाकर पूर्णता की हर मंज़िल को छू लें। लेकिन वो शाहरुख ख़ान जैसे सितारे के मोह से खुद को पूरी तरह बचा नहीं पाये। इसीलिए यहाँ भी हीरो वैसे ही सूट-बूट पहनकर नाचता है और ट्रेडमार्क स्टाइल में अपनी बाहें फैलाता है। फ़िल्म आखिर में उसे वीर देशभक्त भी साबित कर देती है। अनुष्का शर्मा भी अपनी भूमिका में पूरी तरह खरी नहीं उतरी हैं। मार्गरिटा विथ ए स्ट्रा में कल्कि कोचलीन ने इससे कहीं बेहतर तरीके से ऐसी ही चुनौतीपूर्ण भूमिका निभायी थी। इसके मुकाबले शराब के नशे में डूबी बिगड़ैल सितारा बबीता कुमारी की भूमिका में कैटरीना कैफ़ कहीं बेहतर लगी हैं। स्पॉटलाइट के पीछे की स्याह हक़ीक़त उनके किरदार में खूब उभरकर आयी है। हाथ में शराब की बोतल, टूटे दिल और भरी हुई आँखों के साथ ये कैटरीना की बीते कुछ सालों में शायद सबसे शानदार परफॉर्मेंस है।

अलग-अलग देखें तो ये सभी किरदार मज़ेदार हैं। जैसे बउआ के पिता की भूमिका में कबिल तिग्मांशु धूलिया, जिनकी बउआ के साथ चलती नोक-झोंक पर अलग से एक पूरी फ़िल्म बनायी जा सकती है। अदावत ऐसी कि बउआ उन्हें सीधा नाम से बुलाता है − अशोक। लेकिन इन सबको आपस में जोड़नेवाला धागा कहानी से गायब है और इसीलिए आगे जाकर कहानी बिखरने लगती है। सलमान ख़ान से लेकर श्रीदेवी तक के केमियो भी डूबते जहाज़ को उबार नहीं पाते। वजह, निर्देशक आनंद एल राय और लेखक हिमांशु शर्मा ने अपनी सबसे बड़ी ताक़त को यहाँ खो दिया है − ज़मीन से जुड़े, जज़्बातों से भरे ऐसे ज़िन्दा किरदार जो हमें अपने से लगें। ज़ीरो आखिर तक पहुँचते पहुँचते इस खूबी से बहुत दूर निकल जाती है। यहाँ अमेरिका का स्पेस सेन्टर है, एक बन्दूक, एक चिम्पैंज़ी और एक बच्चा। और वो याद रह जानेवाली लाइन, 'तो आपके हिसाब से चिम्पैंज़ी की फैमिली उसे मार्स नहीं जाने दे रही है।'

ज़ीरो ज़्यादा बड़ा हासिल करने की कोशिश में औंधे मुँह गिरती है। हालांकि इसके वीएफ़एक्स बढ़िया हैं आैर पूरी फ़िल्म की सिनेमायी भाषा किसी चमकीली परियों की कहानी सरीख़ी है। मुझे अजय-अतुल का रचा प्यार का नग़मा 'मेरे नाम तू' भी बहुत पसन्द आया। लेकिन कुल-मिलाकर ये फ़िल्म मुझे उदास कर गयी। उदास इसलिए कि जब कलाकार इतना बड़ा रचनात्मक दांव खेलते हैं तो आप उन्हें हर हालत में सफ़ल होते हुए देखना चाहते हैं।

(This review has been adapted to English by Mihir Pandya)

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