कैसे बनती थीं 90 के दशक में हिन्दी फ़िल्में? पागलपन से भरे  11 किस्से, खुद सितारों की ज़ुबानी

क्या मज़ेदार बात हुई जब बॉबी देओल गुप्त के गानों की शूटिंग कर रहे थे? काजोल ने कुछ कुछ होता है में फ्रूटकेक जैसे कपड़े क्यों पहने थे? हम सुना रहे हैं सितारों के पसन्दीदा 90s के किस्से।
कैसे बनती थीं 90 के दशक में हिन्दी फ़िल्में? पागलपन से भरे  11 किस्से, खुद सितारों की ज़ुबानी

हिन्दी सिनेमा इंडस्ट्री में नब्बे का दशक अजीब पागलपन से भरा वक्त था। आज जैसा व्यवस्थित कुछ नहीं होता था। इधर सीन शूट होने वाला है आैर उधर बैठकर स्क्रिप्ट लिखी जा रही है। नायिकाअों के साथ ये भी हुआ कि पूरे सेट पर आपके अलावा कोई दूसरी महिला नहीं। आैर तमाम बड़े अभिनेता अपनी जान को आफ़त में डाल एक ही समय पर अनेक फ़िल्मों की शूटिंग में उलझे रहते थे। उन फ़िल्मकारों आैर सितारों से, जिन्होंने अपना सबसे सुनहरा काम नब्बे के दशक में किया है, हमने पूछा कि उनका इस पागलपन से भरे वक्त में फ़िल्में बनाने से जुड़ा सबसे पसन्दीदा किस्सा कौनसा है? ये रहे उनके हंगामाखेज़ जवाब:

करण जौहर

कुछ कुछ होता है के एक सीन में काजोल किसी फ़्रूटकेक जैसी लगती हैं। असल में हम चाहते थे कि काजोल उस सीन में एकदम 'आेवर-दि-टॉप' भड़कीले पहनावे में दिखें, आैर नब्बे के दशक में तड़क-भड़क के नाम पर हमें यही समझ आया। मैंने देखा है, आजकल लड़कियाँ बड़ी आसानी से ऐसे कपड़े पहन लेती हैं, लेकिन उस दौर में यह अजीबोगरीब आैर हँसी की वजह माना गया। ऐसे ही, अगर आप इंटरवेल से पहले फ़िल्म में जो रेलवे स्टेशन वाला सीन है, उसमें पीछे ज़ूम करके देखें तो आपको जगह का नाम 'फ़रीदाबाद' लिखा मिलना चाहिए। नहीं नहीं, हम इस फ़िल्म की शूटिंग करने फ़रीदाबाद नहीं गए थे। इस कॉलेज वाले हिस्से की शूटिंग तो हमने मॉरिशस में की थी। लेकिन मॉरिशस में शूट करते हुए मुझे लगा कि नहीं, ये भी काफ़ी नहीं। तो हम इस ख़ास सीन को शूट करने (वही मशहूर बेंच वाला सीन जिसमें रानी आैर शाहरुख़ मिलकर काजोल को दिलासा दे रहे हैं) मॉरिशस से भी आगे.. स्कॉटलैंड चले गए। तो ये कॉलेज जिसे फ़रीदाबाद में होना था, मॉरिशस से लेकर स्कॉटलैंड तक पूरी दुनिया घूम आया.. बस फ़रीदाबाद को छोड़कर।

माधुरी दीक्षित नेने

मैं कभी-कभी उस दौर के सिनेमा की 'लार्जर-दैन-लाइफ़' डायलॉगबाज़ी को बहुत मिस करती हूँ। वो 'आप हमारे कमरे में नहीं आ सकते' जैसे संवाद, वो 'आउच'! कितनी ही बार ऐसा होता था कि हम मेकअप करके, तैयार होकर बैठे हैं आैर पता चला कि सीन तो अभी लिखा ही जा रहा है। उधर ही सेट पर कहीं कोने में बैठे फ़िल्म के लेखक अगला सीन लिख रहे होते थे। वहीं हमें हमारे संवाद मिलते थे, आैर उन्हें फ़ौरन याद कर हमें दृश्य में अभिनय करना होता था। लेकिन इससे कई बार दृश्य में क्या कमाल की सहजता आ जाती थी। अब सोचती हूँ तो लगता है कि वाकई, 'हमने सच में क्या-क्या सब किया है!' अब तो मुक्कमल पटकथाअों का ज़माना है, जहाँ शूटिंग से पहले चाहो तो उसे हज़ार बार पढ़ा जा सकता है।

रवीना टंडन

मैं अपने ज़्यादातर काम को जब पीछे मुड़कर देखती हूँ तो यही सोचती हूँ कि आखिर मैं क्या सोचकर ये सब कर रही थी। उस दौर में हम 30 के क़रीब फ़िल्में एक ही वक्त में कर लिया करते थे। मैंने तो एक ही दिन में छह भिन्न निर्माताअों की छह अलग-अलग फ़िल्मों के लिए शूटिंग भी की है। आखिर हर फ़िल्म में एक ही भूमिका − वही बिगड़ी, नकचड़ी अमीर बाप की बेटी जिसे किसी गरीब खुद्दार लड़के से प्यार हो जाता है, निभाना क्या ज़्यादा मुश्किल होगा? मुझे बस अपने कपड़े आैर जूते भर बदलने होते थे। आैर हर फ़िल्म में मेरे संवाद कुछ इस तरह के होते थे, "नहीं पापा नहीं! गोली इसे मत मारिये, मुझे मारिये।" एक बार ऐसा हुआ कि मेरी तीन फ़िल्मों के निर्माताअों का शूटिंग शेड्यूल आपस में टकरा गया। तो मैंने उन तीनों को संदेसा भिजवा दिया कि मैं अमुक स्टूडियो में रहूंगी, आप तीनों यहीं आ जायें आैर मेरे साथ अपनी शूटिंग निपटा लें। मैं अपनी वैनिटी वैन में थकान से चूर, निढाल सोफे पर सोयी रहती थी आैर मेरे मेकअप आर्टिस्ट कोरी वालिया पीछे से आकर, बिना मुझे नींद से जगाए ही मेरा मेकअप चेंज कर दिया करते थे।

सैफ़ अली ख़ान

ऐसा नहीं कि ममता कुलकर्णी के बाल आशिक आवारा गाने में मुझसे कुछ ज़्यादा अच्छे हैं! मैंने देखा कि ममता कोई सफ़ेद रंग की गोली खा रही हैं। मैंने उनसे उत्सुकतावश पूछा, "ये तुम क्या खा रही हो?" तो उन्होंने बताया, "ये मुझे ज़्यादा पसीने से बचाती हैं" मैंने जवाब में कहा, "पर ऐसी भयंकर गर्मी में पसीना भी ना आये, क्या ये अच्छा होगा!" अब उस समय आज की तरह एयर कंडिशनिंग तो होती नहीं थी सेट पर। कुछ ही पलों बाद मैं अपने घुटनों के बल खड़ा होकर नाच रहा था आैर उनसे खून निकल रहा था। आैर सरोज़ ख़ान बिल्कुल फ़िल्मी अंदाज़ में कह रही थीं, "देखो ये खून तुम्हें कहाँ पहुँचाता है।" उस दिन सच में बहुत गर्मी थी आैर ये डांस स्टेप्स करने में मुझे बहुत मुश्किलें आयी थीं। लेकिन जब वो गाना परदे पर आया, तो हिट हो गया। अक्षय कुमार ने मुझे फ़ोन किया आैर वो लगातार हँसते ही जा रहे थे। उन्होंने कहा कि ये तो मास्टरपीस है। हम आज भी उसे याद कर खूब हँसते हैं।

रानी मुखर्जी

मैं उन दिनों गुलाम की शूटिंग कर रही थी आैर उसके लिए मेरे बालों का सीधा होना ज़रूरी था, क्योंकि फ़िल्म में यही मेरा लुक था। जब मैं सेट पर पहुँची तभी मुझे समझ आया कि हेयरड्रेसर तो मेरे बालों को सीधा करने के लिए सचमुच की इस्त्री − वो जो कपड़े प्रेस करने के काम आती है, ले आयी हैं। मेरी वैनिटी वैन में उस इस्त्री को लाया गया आैर मुझे लिटाकर बाकायदा उससे मेरे बालों पर प्रेस की गयी, जिससे वो शूट के लिए सीधे हो जायें। इसीलिए आज जब फ़िल्मों के सेट पर स्ट्रेटनर जैसे कहीं कम डरावने उपकरण देखती हूँ, तो सोचती हूँ कि हम चलते-चलते कितनी दूर निकल आये हैं।

शिल्पा शेट्टी

मैं दक्षिण के बड़े निर्माता टी रामाराव के साथ ये फ़िल्म कर रही थी। शायद फ़िल्म का नाम हथकड़ी था। वो एक नया गाना लेकर आये, 'एल एम एल' नाम का, आैर मैंने आश्चर्य से पूछा कि "ये एल एम एल क्या है?" पूरा गाना था, "लेट्स मेक लव बेबी, एलएमएल बाबा एलएमएल।" आैर ये सुपरहिट गाना था। पर मैं तो तब 'चुरा के दिल मेरा' जैसा गाना शूट कर आयी थी। मैंने सेट पर जाकर घोषणा कर दी, "ये लेट्स मेक लव मैं नहीं बोलूंगी।" तो मैंने पूरा गाना 'लव मी लव बेबी' बोलकर डब किया, आैर बाद में उन्हें पूरे गाने को 'एलएमएल' के साथ दोबारा डब करना पड़ा।

ट्विंकल खन्ना

नब्बे में फ़िल्म शूट करना मतलब, या तो सेट पर आप अकेली महिला होंगी या फिर दूसरी महिला आपकी हेयरड्रेसर होगी। ऐसा ही होता था, जब तक आपकी माँ आपके साथ नहीं जाती हैं। आैर मेरी माँ तो मेरे साथ जाती नहीं थीं। आैर फिर ये अजीबोगरीब आदमी सेट पर होते थे, जिन्होंने सर से पैर तक सफ़ेद कपड़े पहने हुए होते थे। उन्हें देखकर रोज़ मन में ख़्याल आता था कि "इनकी सफ़ेदी मेरी सफ़ेदी से ज़्यादा कैसे?" आप ऐसे-ऐसे लोगों से बातें कर रहे होते थे जिन्होंने पूरी ज़िन्दगी में एक किताब तक ढंग से नहीं पढ़ी होगी। गनीमत है कि उन दिनों इंटरनेट आैर स्मार्टफ़ोन नहीं होते थे। मैं तो सेट पर जाती थी आैर सारे ख़ाली समय बस पढ़ती रहती थी। एक बार मैं सेट पर ख़ाली बैठी कुछ बुनाई का काम कर रही थी कि मेरा स्पॉटबॉय एंथनी आया − वो मेरी माँ का भी स्पॉटबॉय रहा था इसीलिए मुझपर कुछ अधिकार भाव रखता था − आैर मुझसे बोला कि "प्लीज़ आप सेट पर ये बुनाई का काम मत किया करो। लोग आपको सिलाई-बुनाई करते देखेंगे तो समझेंगे कि टीना बाबा, आप एकदम आंटी हो। आैर ये कतई भी अच्छा नहीं, क्योंकि कोई भी हीरोइन आंटी नहीं हो सकती।" हीरोइन बनके आपको सबकी चाहत जो होना है।

संजय कपूर

मेरी पहली फ़िल्म रिलीज़ होने से पहले ही मैं एकसाथ पांच फ़िल्में कर रहा था। मैं कर्तव्य 80 प्रतिशत पूरी कर चुका था, आैर छुपा रुस्तम 60 प्रतिशत। मेरे सिनेमाई पदार्पण के पहले ही मैं दोहरी शिफ़्ट में शूटिंग कर रहा था। मैं बेकाबू के लिए सरोज ख़ान के साथ एक गाना शूट कर रहा था। मैं 7 बजे पैकअप करते फ़िल्मिस्तान से फ़िल्मालया जाया करता था, जिससे वहाँ मनीषा कोईराला के साथ चिन्नी प्रकाश के लिए छुपा रुस्तम का गाना शूट कर सकूं। आैर चिन्नी सोच रहे होते थे, "अभी ये सरोज के साथ गाना करके आया है!" एक गाने में मैं जादूगर बना था, तो दूसरे रोमांटिक गाने में हीरोइन मुझपर अपना प्यार बरसा रही थी।

मैं सिएटल में प्रेम के लिए शूटिंग कर रहा था कि तभी एन चंद्रा का शूट शुरु होने वाला था। हमें अमेरिका में तीन ही दिन शूट करना था, लेकिन वो पांच दिन में पूरा हुआ। वापसी की यात्रा भी लम्बी आैर थका देनेवाली थी। जब मैं एन चंद्रा के सेट पर पहुँचा, तो मैं एक ऐसा नया कलाकार था जो अपनी ही फ़िल्म के सेट पर 48 घंटे देरी से पहुँचा है। मैं बहुत ही छोटा महसूस कर रहा था। मैं अपना मुँह कहीं छुपा लेना चाहता था, आैर सेट पर मुझे ऐसा महसूस भी करवाया गया। ऐसा किसी ने नहीं कहा कि चलो, कोई बात नहीं। वो पूरा दिन मेरे लिए किसी बुरे सपने की तरह गुज़रा।

बॉबी देअोल

गुप्त का गाना 'दुनिया हसीनों का मेला' महबूब स्टूडियो में शूट हुआ था। मुझे याद है, मैंने उसके लिए छह जोड़ी काली जींस खरीदी थी। क्योंकि जब भी मैं प्रैक्टिस के बाद शॉट देने के लिए पहुँचता था, मेरी जींस पूरी तरह पसीने में तर हो चुकी होती थी। गाने में एक सीन ऐसा भी है जिसमें बारिश दिखायी गई है, लेकिन मेरे कपड़े तो रिहर्सल की वजह से हमेशा भीगे ही रहते थे। मुझे लगता है कि वो ऊर्जा गाने में भी नज़र आती है। इसी फ़िल्म की शूटिंग के दौरान मेरे एक पैर में मोच आ गई, आैर इसी वजह से फ़िल्म के कुछ गाने ऐसे हैं − जैसे 'ऊंचाइयाँ गहराइयाँ', जिनमें मैं अपने पैर ज़रा भी नहीं हिला पा रहा हूँ। मेरी फ़िल्म के बाद एक आैर सर्जरी होनी बाकी थी। इसी वजह से गाने के स्टेप्स ऐसे थे, जिनमें मुझे बस अपने हाथों को उठाना आैर गिराना था। लेकिन वो स्टाइल बन गया, आैर लोगों को लगा कि ये बड़ा कूल है।

काजोल

मेरी पहली फ़िल्म बेखुदी में कैमरामैन से लेकर राहुल अंकल (निर्देशक राहुल रवैल) आैर मिक्की (कॉंट्रेक्टर), गौतम (राज्याध्यक्ष) आैर फ़िल्म में मेरे पिता की भूमिका निभा रहे विजेन्द्र घाटगे तक सबने बस तय कर लिया कि मेरा ख़्याल रखना है। मैं बस सोलह – साढ़े सोलह साल की थी आैर सब मुझसे ऐसे बात करते थे, "बेबी को बुलाआे शॉट के लिए।" आैर "अरे नहीं नहीं बेबी, आप बैठो।" आख़िर मेरी माँ ने मुझे रोते हुए जो विदा किया था फ़िल्म शूट के लिए। कहते हुए कि "मेरी बेबी का ख़्याल रखना।"  मेरे लिए तो फ़िल्म सेट बोर्डिंग स्कूल से भी बुरा हो गया था। एेसी मुझे ख़ातिरदारी मिली आैर मेरी शुरुआती सभी फ़िल्मों में सेट पर ऐसा ही 'घरेलू' माहौल बना रहा।

गोविन्दा

देविड (धवन) को हमेशा मुझपर पूरा भरोसा रहा। उन्हें मालूम था कि अगर वो मुझे कोई भूमिका देंगे तो मैं पूरी ईमानदारी के साथ उसे निभाऊंगा। इसी वजह से मैंने कभी ज़्यादा चिन्ता भी नहीं की। उन्होंने मुझे सेट पर जाते हुए रास्ते में ही बताया था कि फ़िल्म का नाम कुली नम्बर 1 है, आैर फ़िल्म की शूटिंग शुरु होने में बस छह-सात घंटे बाकी हैं। डेविड बोले, "चीची भैया, कुछ बिगाड़ना मत।" मैं सेट पर पहुँचा आैर मुझे लगा कि ये तो मैं पहले कर चुका हूँ। फ़िल्म के कलाकार भी वही थे − क़ादर ख़ान, शक्ति कपूर आैर मैं। सबकुछ वैसा का वैसा, जो मैं पहले कर चुका था। सब तैयार था। अब मैं क्या कर सकता था? मुझे एक पुराना किरदार याद आया जिससे मैं बहुत पहले मिला था, आैर मैंने उसे निभाने का सोचा। मैंने क़ादर ख़ान जी को उस किरदार के बारे में बताया आैर उन्हें भी वो बहुत दिलचस्प लगा।

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