‘उरी: दि सर्जिकल स्ट्राइक’ रिव्यू: हिन्दुस्तानी फ़ौज के नाम लिखा गया आवेगों से भरा प्रेमपत्र

आखिर में इस यथार्थवादी आतंकी ड्रामा और भड़कीली एक्शन थ्रिलर के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है
‘उरी: दि सर्जिकल स्ट्राइक’ रिव्यू: हिन्दुस्तानी फ़ौज के नाम लिखा गया आवेगों से भरा प्रेमपत्र

'उरी : दि सर्जिकल स्ट्राइक' भारत की फ़ौज के नाम लिखा गया आवेगों से भरा प्रेम पत्र है। लेकिन अगर आप उम्मीद कर रहे हैं कि फ़िल्म सीमा पर गोली खाने को तैयार खड़े इन बहादुर नौजवानों के दिलोदिमाग की उलझनों पर भी रोशनी डालेगी, तो आपकी उम्मीद बेमानी है। लेखक-निर्देशक आदित्य धर की कहानी में सेना के जवान सुपरहीरो हैं जो मौका आने पर शोक तो मनाते हैं, लेकिन इस अतिवादी पालों में बंटी लड़ाई में कभी अपनी जगह को लेकर शक या सवाल नहीं करते। कैथरीन बिग्लो की 'ज़ीरो डॉर्क थर्टी', जिसका असर यहाँ दिखाई देता है, से उलट यहाँ किसी आत्मपरीक्षण की गुंजाइश नहीं है। 'उरी' में सैनिक मोर्चे पर हैं। उनमें देशभक्ति का जुनून भरा है और तेज़ पार्श्वसंगीत उनका वाहक है। इसीलिए जब स्पेशल फोर्सेस पैरा कमांडो मेजर विहान शेरगिल सवाल पूछते हैं, "हाऊ इज़ दी जोश?" तो उनकी टीम के साथ दर्शकों का भी यही जवाब होता है, "हाई"।

'उरी' की कहानी 2016 में भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान की सीमा में स्थित आतंकी ठिकानों पर की गई सर्जिकल स्ट्राइक पर आधारित है। यह सर्जिकल स्ट्राइक जवाबी कार्यवाही थी उरी में सेना छावनी पर हुए उस आतंकी हमले की, जिसमें 19 जवान शहीद हुए थे। इनमें से कई तो नींद से भी नहीं जाग पाये थे। यह फ़िल्म इस घटना का कल्पित रूपांतर पेश करती है। आदित्य धर यहाँ हमारे भीतर की भावनाओं और देशभक्ति को जगाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। इसीलिए जब विहान को इस मिशन पर जाने के लिए कहा जाता है, तो उसे खुद एक पारिवारिक त्रासदी में उलझा दिखाया गया है। इस तरह यह निजी हो जाता है। और जब विहान अपनी अल्ज़ाइमर्स की मरीज़ माँ के साथ ज़्यादा वक़्त बिताने की ख्वाहिश जताते हुए फ़ील्ड छोड़ने की बात करता है, तो खुद प्रधानमंत्री उसे याद दिलाते हैं कि देश भी तो माँ है। मुझे कहना होगा, रजित कपूर ने यहाँ खास अदा के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका निभाई है। परदे पर प्रधानमंत्री की उपस्थिति चंद सवाल पूछने और प्रतिक्रिया देने तक सीमित है। असली हीरो की भूमिका में यहाँ गोविंद सर को दिखाया गया है। परेश रावल द्वारा निभाया यह किरदार राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से प्रेरित है। गोविंद सर ही पूरे वेग के साथ यह घोषणा करते हैं कि यह 'नया हिंदुस्तान' है। ये घर में घुसेगा भी और मारेगा भी।

फ़िल्म तथ्यों और कल्पना के बीच खेलती है। एक ओर लड़ाई की वास्तविक तस्वीर है तो दूसरी ओर 'टॉप गन' स्टाइल में हैलीकॉप्टर से उतरते जवानों के स्लो-मोशन शॉट्स हैं। फ़िल्म के पहले हिस्से में आदित्य यथार्थ और स्टाइल दोनों के धागे बखूबी संभालते हैं, जिसके लिए फ़िल्म के सिनेमैटोग्राफ़र मितेश मीरचंदानी को भी श्रेय दिया जाना चाहिए। कहानी में बुलन्दी है और कथानक के मोड़ जाने-पहचाने होते हुए भी पसन्द आते हैं। उरी के आतंकी हमले को पूरे कौशल के साथ फ़िल्माया गया है। ऐसा लगता है जैसे किसी ने आपको सीधा युद्धक्षेत्र के बीचोंबीच फेंक दिया हो। इस पल का रहस्य रोमांच उत्तेजना से भर देने वाला है। विक्की कौशल सेना के जवान की भूमिका में खूब जंचे हैं। उन्होंने अपने शरीर पर मेहनत की है जो साफ़ दिखाई देती है। सुगठित शरीर के साथ उनमें नैसर्गिक भोलापन भी है, जो उनके किरदार को पूरा करता है। जहाँ वो सेना के जवानों की अंतिम यात्रा में रोते हैं, वो दृश्य देखने वाला है। कड़क वर्दी, तनी हुई रीढ़ और आँखों में आँसू। नायिकाओं कीर्ति कुल्हरी और यामी गौतम के हिस्से अप्रासंगिक भूमिकाएं ही आयी हैं। हाँ, पैरा कमांडो की भूमिका में मोहित रैना बढ़िया लगे हैं।

लेकिन आखिर में इस यथार्थवादी आतंकी ड्रामा और भड़कीली एक्शन थ्रिलर के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है। फ़िल्मकार हमें बताते हैं कि यह फ़िल्म उन तथ्यों पर आधारित है जो पब्लिक डोमेन में पहले से मौजूद हैं। मुझे नहीं पता कि फ़िल्म में दिखाया गया कितना सच है, लेकिन बहुत सारी जगहों पर ये इतना एकांगी लगता है कि मन में सवाल उठने लगते हैं। जैसे डीआरडीओ में काम करनेवाले एक इंटर्न की ऑपरेशन में महत्वपूर्ण भूमिका दिखाना, पाकिस्तान की ओर से हर हमलावर का निशाना हमेशा चूक जाना। फ़िल्म का क्लाइमैक्स सीधा 'ज़ीरो डार्क थर्टी' से उठाया लगता है जहाँ सैनिक रात्रिकालीन चश्मे लगाए एक कमरे से दूसरे की तलाशी ले रहे हैं। लेकिन यहाँ भी आदित्य ज़माने से चली आ रही हिन्दुस्तानी हीरो की खांटी हीरोगिरी के प्रदर्शन से बच नहीं पाए हैं और विहान को अन्तत: आमने-सामने की हाथापाई में उतरना ही पड़ता है।

फ़िल्म अलग-अलग अध्यायों में बंटी है। जैसे-जैसे हम क्लाईमैक्स की तरफ़ बढ़ते हैं कहानी ऑपरेशन रूम, इंटेरोगेशन सेंटर और पाकिस्तानी तरफ़ के सभाकक्षों के बीच घूमने लगती है। इसके साथ मौके की तीव्रता बढ़ाने के लिए उल्टी गिनती भी चलती रहती है। लेकिन यहाँ तक पहुँचते पहुँचते कथानक अपनी तीव्रता खो देता है। मुझे लगता है कि अगर फ़िल्म की लम्बाई कुछ छोटी होती, तो कहानी की पकड़ बेहतर होती।+

(This review has been adapted from English by Mihir Pandya)

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