परमाणु: द स्टोरी ऑफ पोखरन फिल्म रिव्यू

जॉन अब्राहम स्टारर परमाणु को देखकर आप इसके हक़ीक़त के करीब होने या असल घटना को ईमानदारी से परदे पर पेश करने के इरादों पर भले सवाल उठाएं, लेकिन ये फिल्म ड्रामा की कसौटी पर खरी उतरती है।
परमाणु: द स्टोरी ऑफ पोखरन फिल्म रिव्यू

निर्देशक: अभिषेक शर्मा

कलाकार: जॉन अब्राहम, डायना पेंटी, बोमन ईरानी, विकास कुमार, आदित्य हितकरी, योगेंद्र टिक्कू, दर्शन पांड्या

मई 1998 में भारत ने पोखरन में परमाणु परीक्षण किए। हैरान करने वाली बात तब ये हुई थी कि इन टेस्ट की अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए को भनक तक नहीं लगी और इन परमाणु परीक्षणों की कामयाबी ने भारत को संपूर्ण परमाणु शक्ति के तौर पर दुनिया के सामने पेश कर दिया। परमाणु: द स्टोरी ऑफ पोखरन इसी 'ऑपरेशन शक्ति' की अनोखी कहानी को फिल्मी परदे पर पेश करने की कोशिश है। उस समय के हिसाब ये एक बहुत मुश्किल, चुनौती भरी और महात्वाकांक्षी योजना थी, जिसकी नींव अटल बिहारी वाजपेयी के पहले प्रधानमंत्रित्व काल में ही पड़ गई थी लेकिन अटल की 13 दिन की सरकार का गिरना इसे दो साल और आगे ले गया। सच में जैसा हुआ वैसा ही कुछ फिल्म की शुरूआत में भी दिखता है। कहानी थोड़ा हिचकोले खाकर शुरू होती है। सबसे पहले तो रिसर्च और रणनीति संभालने वाले एक आईएएस अफसर के तौर पर जॉन अब्राहम को मूंछों वाले अश्वथ राणा के तौर पर स्वीकार करने में दर्शकों को थोड़ा वक्त लगता है। फिल्म शुरू होती है तो जॉन तमाम आलसी अफसरों को ये समझाते दिखते हैं कि आखिर क्यों भारत को देश में ही विकसित परमाणु हथियार बनाने की जरूरत है। सीन थोड़ा फिल्मी भी लगता है। अश्वथ राणा के शब्दो में कहें तो, हमें दुनिया को अपनी ताकत दिखानी है। मैं खुद को संभालती हूं और हालांकि सिनेमाघर में सीट बेल्ट नहीं होती लेकिन मन ही मन मैं मान चुकी होती हूं कि आगे की फिल्म में कई झोल और कई मोड़ ऐसे आने वाले हैं, जब मुझे कुछ न कुछ 56 इंची सीने वाली बातें देखने को मिल सकती हैं।

लेकिन मुझे शुक्रिया अदा करना चाहिए निर्देशक अभिषेक शर्मा और उनके साथ ये फिल्म लिखने वाले साइविन क्वाद्रास और संयुक्ता शेख चावला का कि ऐसा कुछ आगे फिल्म में हुआ नहीं। फर्स्ट गियर वाली गलती आगे न दोहराते हुए लेखकों की ये टीम परमाणु को एक ऐसे सस्पेंस थ्रिलर की स्पीड देने में कामयाब होती है जहां एक मिशन पर तमाम जाबांज जान हथेली पर रखकर निकले हैं। अटल बिहारी वाजपेयी दोबारा देश के प्रधानमंत्री बन चुके हैं। और उनके साथ काम संभालता है एक दमदार सेक्रेटरी हिमांशु शुक्ला। बोमन ईरानी के इस किरदार में आपको तब के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा की झलक मिल सकती है। अश्वथ को दिल्ली बुलाया जाता है। एक क्रैक टीम तैयार की जाती है और आखिरकार भारत दुनिया की एक परमाणु शक्ति बनने का अपना लक्ष्य हासिल करने में कामयाब होता है।

फिल्म के हक़ में जो सबसे बड़ी बात जाती है वो ये है कि मिशन पर निकले इन जाबांजों के सामने आने वाली चुनौतियों को फिल्म में बहुत सही तरीके से समझाया गया है। सबसे पहला राह का रोड़ा दिखता है सीआईए और भारत के आसमान में चक्कर लगाते अमेरिकी जासूसी उपग्रह। फिर अमेरिका और पाकिस्तान क जासूस भी हैं, समय की कमी है, मुकाबला उन नेताओं से भी है जो किसी तरह वाजपेयी सरकार को गिराने की जुगत में लगे हैं। इस सबसे पार पाने के साथ ही इन्हें पूरा करना है एक ऐसा काम, जिसके तार दिल्ली से लेकर मुंबई और राजस्थान तक फैले हुए हैं। बीच में हमें ये भी समझाया जाता है कि सैटेलाइट काम कैसे करते हैं और कैसे वे इस मिशन का तिया-पांचा कर सकते हैं। हालांकि, ये थोड़ा रास्ते से भटका हुआ सीन लग सकता है लेकिन ये जरूरी इसलिए है ताकि परदे पर दिख रहे किरदार और सिनेमाघर के अंधेरे में बैठे दर्शकों के बीच घोड़े और घुड़सवार जैसी ट्यूनिंग बन सके। ये सब काम आता है फिल्म के क्लाइमेक्स को अर्गो जैसी फिनिशिंग लाइन तक लाने में जहां हर सेकेंड कीमती है। और, हम ये जानते हुए भी कि आखिर में क्या होने वाला है, अपनी सीटों से चिपके रहते हैं।

इस सबके बावजूद मेरा मानना है कि परमाणु थोड़ा और बेहतर फिल्म हो सकती थी अगर इसकी एडिटिंग चौकस होती। फिल्म की रफ्तार को ढीली तीन चीजें करती हैं, एक तो राजस्थानी लोकसंगीत को कहानी में घोलने की कोशिश, फिर अश्वत्थ की पर्सनल लाइफ का मेलोड्रामा और रही सही कसर पूरी कर देता है डायना पेंटी का किरदार। बेचारी के हिस्से में कुछ आया तो भी चंद ऐसी लाइनें जहां उसे बोलना होता है, द ईगल हैज लैंडेड। डायना के किरदार का परदे पर मस्त हेयर स्टाइल और मेकअप देखकर तो कई बार ऐसा भी लगता है कि भला इसने धूप और धूल में कभी चार पल गुजारे भी होंगे कि नहीं। लेखकों की चुस्ती की एक और कमी यहां उन किरदारों में भी झलकती है जिनको मजबूती देने की उनकी कलम ने शायद कोशिश ही नहीं की। इसके चलते हमें देखने को मिलते हैं ऐसे किरदार जिनकी पूरी बुनावट ही फिल्मी है, जैसे एक को भूलने की बीमारी है तो दूसरे को ऊंचाई से डर लगता है। और फिर 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' की तर्ज पर किरदारों को अलग अलग सूबों से भी जोड़ने की बेतुकी सी कोशिश भी है ताकि विविधता में एकता जैसे नारे को दर्शकों में रोपा जा सके। बोमन ईरानी के पास वैसे करने को बहुत कुछ था लेकिन शायद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के पद को उन्होंने कुछ ज्यादा ही सीरियसली पढ़ लिया।

पूरी फिल्म में कोई एक शख्स जो सौ फीसदी समर्पण के साथ काम करता दिखता है तो वो हैं जॉन अब्राहम, जो फिल्म के को प्रोड्यूसर भी हैं और फिल्म के मेन हीरो भी। आमतौर पर हम उन्हें दूसरों की हड्डियां तोड़ने वाले किरदारों जैसी एक्शन फिल्म्स में ही देखते आए हैं, लेकिन यहां जॉन ने खुद को उस खांचे से बाहर निकाला है। देखकर अच्छा लगता है कि अश्वत्थ एक आम इंसान है, वह सुपरमैन नहीं है। उनके किरदार को उन दृश्यों से भी मजबूती मिलती है जहां हम उन्हें फेल होते देखते हैं। अश्वत्थ हमारे आपके जैसा है। वह गलतियां कर सकता है। इस किरदार को जॉन ने पूरी लगन से निभाया है। हालांकि जॉन की मजबूरी ये है कि उनके चेहरे पर नपे तुले भाव ही आते हैं, फिर भी वह इस किरदार की ईमानदारी और उसमें दर्शकों का भरोसा कायम करने में कामयाब रहे हैं।

अभिषेक ने बिना किसी लाग लपेट के फिल्म परमाणु में देशभक्ति का कार्ड खुलकर खेला है। अनिल शर्मा की फिल्मों जैसे कुछ सीन्स से अभिषेक दर्शकों का बीपी भी बढ़ाते हैं और फिर एकाएक हमारे खून के उबाल को ले आते हैं उस प्वाइंट पर जहां परमाणु बम और दर्शकों की देशभक्ति का धमाका एक साथ होता है। और, इस सबके बीच विनाश की इस सबसे बड़ी मशीन से जुड़े दूसरे सवाल हाशिए पर रह जाते हैं। परमाणु एक बहुत ही कठिन पहाड़े को सरल गिनती में तब्दील करने की ऐसी कोशिश है जिसे मानो दर्शकों के लिए कम और पोखरन परमाणु परीक्षण में शामिल होने जा रहे किसी आम इंसान को सब कुछ समझाने के लिए ज्यादा बनाया गया है। आपको इसके हक़ीक़त के करीब होने या असल घटना को ईमानदारी से परदे पर पेश करने के इरादों पर हैरानी हो सकती है, लेकिन ये फिल्म ड्रामा की कसौटी पर खरी उतरती है।

Adapted from English by Pankaj Shukla, consulting editor

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